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Kavita Kosh से
कभी गुमान की सूरत कभी यकीं की तरह
दिलो-नज़र की दुआयें कबूल हो जायें
खुद अपने साये की जुंबिश से खौफ खाए हुए
रवाँ है छोटी-सी कश्ती हवाओं के रुख पर
मेरी खुली हुई बाहों में झूल जाता है
ज़बान खुश्क है आवाज़ रुकती जाती है
तुम्हें गुमान है कि हम मिलके भी पराये हैं।
दबे सुरों में वही गीत गा रही हो तुम
ख़लवत में भी जो ममनूअ थी वह जलवत में जसारत होने लगी
बदन की झेंपती उरियानियाँ छिपाए हुए
अलम-नसीब फ़िरासत का मोल मिल न सका
वह भाई 'नर्ग़ा-ए-दुश्मन' में काम आया है
किसी का कोई नहीं आज सब अकेले हैं
वह रहगुज़र जो मेरे दिल की तरह सूनी है
उफ़क पे खूने-तमन्नाए-दिल की लाली है
सूरज के लहू में लिथड़ी हुई वह शाम है अब तक याद मुझे
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