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{{KKRachna
|रचनाकार=भगवतीचरण वर्मा
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बस इतना--अब चलना होगा

फिर अपनी-अपनी राह हमें ।



कल ले आई थी खींच, आज

ले चली खींचकर चाह हमें

तुम जान न पाईं मुझे, और

तुम मेरे लिए पहेली थीं;

पर इसका दुख क्या? मिल न सकी

प्रिय जब अपनी ही थाह हमें ।



तुम मुझे भिखारी समझें थीं,

मैंने समझा अधिकार मुझे

तुम आत्म-समर्पण से सिहरीं,

था बना वही तो प्यार मुझे ।


तुम लोक-लाज की चेरी थीं,

मैं अपना ही दीवाना था

ले चलीं पराजय तुम हँसकर,

दे चलीं विजय का भार मुझे ।



सुख से वंचित कर गया सुमुखि,

वह अपना ही अभिमान तुम्हें

अभिशाप बन गया अपना ही

अपनी ममता का ज्ञान तुम्हें

तुम बुरा न मानो, सच कह दूँ,

तुम समझ न पाईं जीवन को

जन-रव के स्वर में भूल गया

अपने प्राणों का गान तुम्हें ।


था प्रेम किया हमने-तुमने

इतना कर लेना याद प्रिये,

बस फिर कर देना वहीं क्षमा

यह पल-भर का उन्माद प्रिये।

फिर मिलना होगा या कि नहीं

हँसकर तो दे लो आज विदा

तुम जहाँ रहो, आबाद रहो,

यह मेरा आशीर्वाद प्रिये ।
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