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एकाकी / घनश्याम कुमार 'देवांश'

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जब मैं
तुम्हारा साथ पाने के लिए
कह रहा था
कि मैं अकेला हूँ
अकेला नहीं था शायद
उस वक़्त भी,
मेरी दो बाजुओं पर
पुरवैया और पछियाव
आसमान में उड़ते
सुग्गों की तरह आकर सुस्ताते थे
सिर पर ठुड्डी
टिकाता था सूरज
और पृथ्वी चलती थी
अपनी धुरी पर फुदकती हुई
मेरे साथ,
लेकिन तुम्हारे जाते ही
भौंचक्का रह गया मैं
जब मेरी परछाईं तक
इठलाती हुई
तुम्हारे पीछे-पीछे चली गई...</poem>
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