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Kavita Kosh से
तेरे बिना सूनी लगे, रौनक बहार की
आते नही नहीं हैं वो कभी, महफ़िल में वक़्त से
आदत सी हमको पड़ गई है इंतज़ार की
माना कि शोभा रखता है, कैक्टस का फ़ूल भी
लेकिन चुभन, महसूस की है, मैने मैंने ख़ार की
कुछ भी कहूं या चुप रहूं आफ़त में जान है
रस्सी भी "आज़र" बट चुकी गर्देन पे दार की</poem>