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{{KKRachna
|रचनाकार=वीरेन्द्र खरे 'अकेला'
|संग्रह=शेष बची चौथाई रात / वीरेन्द्र खरे 'अकेला'
}}
{{KKCatGhazal}}
<poem>
हर ख़ुशी ग़म में बदलती है कहो कैसे हँसूं
दिल में मेरे आग जलती है कहो कैसे हँसूं
वो न मिल पाएंगे है मालूम पर उनके लिए
रोज़ ये तबियत मचलती है कहो कैसे हँसूं
धीर खोते दिल को समझाते हुए जाता है दिन
रोते-रोते रात ढलती है कहो कैसे हँसूं
मैं ज़रा भी ख़ुश रहूँ तो मुँह बनाता है समय
जान लोगों की निकलती है कहो कैसे हँसूं
जिसकी ख़ातिर मैं ज़मानेभर से झगड़ा था वही
ग़ैर के घर में टहलती है कहो कैसे हँसूं
शान से महलों में पलती है कहो कैसे हँसूं
करके ईमानों को बेघर बेईमानी आजकल
ज़िन्दगानी हाथ मलती है कहो कैसे हँसूं
ऐ ‘अकेला’ मंज़िलों को दूर जाता देखकर
<poem>
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|रचनाकार=वीरेन्द्र खरे 'अकेला'
|संग्रह=शेष बची चौथाई रात / वीरेन्द्र खरे 'अकेला'
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हर ख़ुशी ग़म में बदलती है कहो कैसे हँसूं
दिल में मेरे आग जलती है कहो कैसे हँसूं
वो न मिल पाएंगे है मालूम पर उनके लिए
रोज़ ये तबियत मचलती है कहो कैसे हँसूं
धीर खोते दिल को समझाते हुए जाता है दिन
रोते-रोते रात ढलती है कहो कैसे हँसूं
मैं ज़रा भी ख़ुश रहूँ तो मुँह बनाता है समय
जान लोगों की निकलती है कहो कैसे हँसूं
जिसकी ख़ातिर मैं ज़मानेभर से झगड़ा था वही
ग़ैर के घर में टहलती है कहो कैसे हँसूं
शान से महलों में पलती है कहो कैसे हँसूं
करके ईमानों को बेघर बेईमानी आजकल
ज़िन्दगानी हाथ मलती है कहो कैसे हँसूं
ऐ ‘अकेला’ मंज़िलों को दूर जाता देखकर
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