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|रचनाकार=वीरेन्द्र खरे 'अकेला'

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<poem>
महकी महकी फ़िज़ा थी वो लड़की
सुब्ह की इन्तहा थी वो लड़की

उसकी ख़ुशियों का सिलसिला था मैं
मेरे दुख की दवा थी वो लड़की

आईना होके पत्थरों से लड़ी
वक्त का हौसला थी वो लड़की

सच को हिम्मत के साथ कहती थी
इसलिए बेहया थी वो लड़की

उसको मंज़िल ही मान बैठा था
क्या हसीं मरहला थी वो लड़की

किसकी चलती है वक्त के आगे
मत कहो बेवफ़ा थी वो लड़की

ऐ ‘अकेला’ बदल गया सब कुछ
क्या थे हम और क्या थी वो लड़की
<poem>
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