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{{KKRachna
|रचनाकार=वीरेन्द्र खरे 'अकेला'
|संग्रह=सुबह की दस्तक / वीरेन्द्र खरे 'अकेला'
}}
{{KKCatGhazal}}
<poem>
सुकूं की अब निशानी ही नहीं है
तेरे बिन ज़िन्दगानी ही नहीं है
है आटा गूंधने की बेक़रारी
मगर अफ़सोस पानी ही नहीं है
समूची पोलियो से ग्रस्त भी है
व्यवस्था अपनी कानी ही नहीं है
ये कैसा फूल है, कहता है मुझको
महक अपनी लुटानी ही नहीं है
सही समझाने वाले तो बहुत थे
किसी ने बात मानी ही नहीं है
मैं ‘कृषि ऋण माफ़’ की सूची में शामिल
मेरे घर तो किसानी ही नहीं है
प्रगति का जोश तो देखो ‘अकेला’
कहानी में कहानी ही नहीं है
<poem>
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सुकूं की अब निशानी ही नहीं है
तेरे बिन ज़िन्दगानी ही नहीं है
है आटा गूंधने की बेक़रारी
मगर अफ़सोस पानी ही नहीं है
समूची पोलियो से ग्रस्त भी है
व्यवस्था अपनी कानी ही नहीं है
ये कैसा फूल है, कहता है मुझको
महक अपनी लुटानी ही नहीं है
सही समझाने वाले तो बहुत थे
किसी ने बात मानी ही नहीं है
मैं ‘कृषि ऋण माफ़’ की सूची में शामिल
मेरे घर तो किसानी ही नहीं है
प्रगति का जोश तो देखो ‘अकेला’
कहानी में कहानी ही नहीं है
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