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|रचनाकार=वीरेन्द्र खरे 'अकेला'

|संग्रह=सुबह की दस्तक / वीरेन्द्र खरे 'अकेला'

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<poem>

यूँ ही रोज़ मरें कब तक
आखि़र धैर्य धरें कब तक

चलनी में जल भरने सा
नाहक़ कर्म करें कब तक

दृश्य भयानक दिखते रोज़
आखि़र लोग डरें कब तक

होंठों पर मीठा सत्कार
मन की सोच टरें कब तक

अर्ज़ी पहुँचा दी, देखो
प्रभु जी पीर हरें कब तक

हम सुधरें जग सुधरेगा
देखो हम सुधरें कब तक

शेर ‘अकेला’ के सुन लोग
जाने आह भरें कब तक
<poem>
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