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मैं/वीरेन्द्र खरे 'अकेला'

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|संग्रह=सुबह की दस्तक / वीरेन्द्र खरे 'अकेला'

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<poem>
मैं नहीं हूँ अच्छा पुत्र
यदि होता
तो बचा लेता
माँ बाप की बूढ़ी हड्डियों को
मँहगाई की क्रूर लाठी से
कुछ आदर्शों को गिरवी रखकर

मैं नहीं हूँ अच्छा भाई
यदि होता तो
छोटे भाई बहनों को
नहीं सिखाता वह सब
जो युग के अनुकूल नहीं है
नहीं ढकेलता उन्हें
अभाव के नरकीय कुएँ में

मैं नहीं हूँ अच्छा मित्र
यदि होता
तो मित्रों की संकीर्ण धारणाओं को भी
सहजता से लेते हुए मित्र धर्म निभाता
नहीं होता मुखर कभी भी
उनकी तुच्छता के विरूद्ध

मैं नहीं हूँ अच्छा कवि
यदि होता तो घोर रेगिस्तान में
महकते उपवन की
और तेज़ आँधियों के बीच
दीपक जलाये रखने की
बेसिर पैर समझी जाने वाली बातें
लोगों के मन-मस्तिष्क में न भरता

मैं नहीं हूँ अच्छा नागरिक
यदि होता
तो अपने जनतंत्रीय देश की
व्यवस्थाओं पर उँगली न उठाता
बहुमत के साथ होता
चंद बाग़ी लोगों की जमात में न होता

देखा मैं
अच्छा पुत्र
अच्छा भाई
अच्छा मित्र
अच्छा कवि
अच्छा नागरिक
कुछ भी नहीं हूँ
मैं एक बुरा आदमी हूँ
हाँ एक बुरा आदमी
मगर
न जाने क्यों
मुझे अपने बुरे होने पर
ज़रा भी अफ़सोस
नहीं है
मैं किसी उद्दण्ड बालक की तरह हूँ
जो अपनी उद्दण्डताओं पर
मुग्ध रहता है ।
<poem>
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