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Kavita Kosh से
आज रात के बारह बजे कौन हो सकता है
जो याद करे इतना कि यह
मन के पंख फड़फड़ाते हैं उड़ते सरपट
लोग जिनकी ओट में सदियों से रहते आए थे
कि जिन्हें अपना होना कहते थे
उन्हीं के खिलापफ ख़िलाफ़ रचा मैंने अपना इतिहास
जो मेरी नज़र में मनुष्यता का इतिहास था
और मुझे बनाता था उनसे अधिक मनुष्य