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|रचनाकार=त्रिपुरारि कुमार शर्मा
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मुझे ये ग़म नहीं कि तू बदल गई हमदम
वक़्त के साथ हर एक चीज़ बदल जाती है
अपनी रूह से बढ़कर भी जिसे चाहे कोई
रूह कितनी भी हो अजीज़ बदल जाती है
मैं भी दे सकता था दौलत-ए-जहाँ तुझको
ज़रा-सा और गर मुझ पर यक़ीन करती तू
मुझे तो अब भी भरोसा है अपनी चाहत पर
कुछ दिनों के लिए और गर ठहरती तू
लोग कहते हैं कि उम्मीद की मंज़िल है वफ़ा
हर एक बात पर तुने तो नाउम्मीद ही की
मैं कैसे समझूँ रिश्ते को मुहब्बत आख़िर
न अपना चेहरा दिखाया न मेरी दीद ही की
मैंने चाहा था कि ये साथ न छूटे लेकिन
सफ़र के बीच में ही साथ अपना छूट गया
मैं इत्तिफ़ाक़ कहूँ या फिर कोई मजबूरी
सच तो ये है कि हाथ अपना छूट गया
क्या तू अब भी महक उठती है पहले की तरह
गोया मैं तेरे ख़्यालों में चला आता था
और मैं तुझसे मिलता हूँ जवाबों की तरह
जैसे मैं तेरे सवालों में चला आता था
तेरे लबों की नाज़ुक-सी पंखुड़ी की क़सम
क्या मेरे होंठ तुझे अब भी याद आते हैं
क्या मैं तुझको चुपके-से लगाता हूँ गले
क्या तुझे याद वो दिन मेरे बाद आते हैं
मैंने चूमा था कभी जिस बदन की डाली को
क्या उन पे अब भी महके गुलाब उगते हैं
आज भी जान लुटा सकता हूँ जिन आँखों पर
क्या उन आँखों में अब भी ख़्वाब उगते हैं
तेरे बालों को उड़ाती है जब बदमाश हवा
क्या उन में मेरी उंगलियाँ-सी नज़र आती हैं
और तू जब भी झटक देती है भिगोकर तो
क्या आसपास बदलियाँ-सी नज़र आती हैं
तू सोने जाती है जब अपने नर्म बिस्तर में
तेरे बदन को क्या अब भी गुदगुदाता हूँ
नहा के जब तू निकलती है गुसलखाने से
क्या आईने में खड़ा अब भी मुस्कुराता हूँ
चाँदनी रात में जब छत पे टहलती है तू
क्या तेरे पाँव के पाज़ेब खनकते हैं अब
जिन राहों से तू अब भी गुज़र जाती है
बहुत देर तक वो राह महकते हैं अब
मैं जानता हूँ तेरा हाल मुझसे ग़ैर नहीं
मेरी ही तरह तू भी रात को रोती होगी
सारा दिन यूँ ही आँखों में गुज़रता होगा
बेसबब सुबह बेवजह शाम भी होती होगी
मैंने सोचा है कई बार तुझसे बात करूँ
ये चाहकर भी मगर फोन कर नहीं सकता
मैं अपनी ज़िद्द कहूँ इसको या तेरी पाबंदी
आँख में अश्क़ हैं पर आह भर नहीं सकता
आरज़ू है कि बस इक बार मैं देखूँ तुझको
तेरी ही ख़ातिर ये धड़कन उदास ज़िंदा है
किसी भी तरह तुझ तक ये ख़बर पहुंचे
कि मेरे दिल में अब भी तेरी प्यास ज़िंदा है
<Poem>
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मुझे ये ग़म नहीं कि तू बदल गई हमदम
वक़्त के साथ हर एक चीज़ बदल जाती है
अपनी रूह से बढ़कर भी जिसे चाहे कोई
रूह कितनी भी हो अजीज़ बदल जाती है
मैं भी दे सकता था दौलत-ए-जहाँ तुझको
ज़रा-सा और गर मुझ पर यक़ीन करती तू
मुझे तो अब भी भरोसा है अपनी चाहत पर
कुछ दिनों के लिए और गर ठहरती तू
लोग कहते हैं कि उम्मीद की मंज़िल है वफ़ा
हर एक बात पर तुने तो नाउम्मीद ही की
मैं कैसे समझूँ रिश्ते को मुहब्बत आख़िर
न अपना चेहरा दिखाया न मेरी दीद ही की
मैंने चाहा था कि ये साथ न छूटे लेकिन
सफ़र के बीच में ही साथ अपना छूट गया
मैं इत्तिफ़ाक़ कहूँ या फिर कोई मजबूरी
सच तो ये है कि हाथ अपना छूट गया
क्या तू अब भी महक उठती है पहले की तरह
गोया मैं तेरे ख़्यालों में चला आता था
और मैं तुझसे मिलता हूँ जवाबों की तरह
जैसे मैं तेरे सवालों में चला आता था
तेरे लबों की नाज़ुक-सी पंखुड़ी की क़सम
क्या मेरे होंठ तुझे अब भी याद आते हैं
क्या मैं तुझको चुपके-से लगाता हूँ गले
क्या तुझे याद वो दिन मेरे बाद आते हैं
मैंने चूमा था कभी जिस बदन की डाली को
क्या उन पे अब भी महके गुलाब उगते हैं
आज भी जान लुटा सकता हूँ जिन आँखों पर
क्या उन आँखों में अब भी ख़्वाब उगते हैं
तेरे बालों को उड़ाती है जब बदमाश हवा
क्या उन में मेरी उंगलियाँ-सी नज़र आती हैं
और तू जब भी झटक देती है भिगोकर तो
क्या आसपास बदलियाँ-सी नज़र आती हैं
तू सोने जाती है जब अपने नर्म बिस्तर में
तेरे बदन को क्या अब भी गुदगुदाता हूँ
नहा के जब तू निकलती है गुसलखाने से
क्या आईने में खड़ा अब भी मुस्कुराता हूँ
चाँदनी रात में जब छत पे टहलती है तू
क्या तेरे पाँव के पाज़ेब खनकते हैं अब
जिन राहों से तू अब भी गुज़र जाती है
बहुत देर तक वो राह महकते हैं अब
मैं जानता हूँ तेरा हाल मुझसे ग़ैर नहीं
मेरी ही तरह तू भी रात को रोती होगी
सारा दिन यूँ ही आँखों में गुज़रता होगा
बेसबब सुबह बेवजह शाम भी होती होगी
मैंने सोचा है कई बार तुझसे बात करूँ
ये चाहकर भी मगर फोन कर नहीं सकता
मैं अपनी ज़िद्द कहूँ इसको या तेरी पाबंदी
आँख में अश्क़ हैं पर आह भर नहीं सकता
आरज़ू है कि बस इक बार मैं देखूँ तुझको
तेरी ही ख़ातिर ये धड़कन उदास ज़िंदा है
किसी भी तरह तुझ तक ये ख़बर पहुंचे
कि मेरे दिल में अब भी तेरी प्यास ज़िंदा है
<Poem>