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फरेब देखे हैं रंगे-वफ़ा नहीं देखा
तुम्हारी बज़्म में वल्लाह क्या नहीं देखा

हरेक गाम पे नफरत ही पायी है हमने
यहाँ पे कौन था जिसको खफा नहीं देखा

ग़म-ए-हयात, ग़म-ए-दिल, या तेरे हिज्र का ग़म
किसी भी दर्द से खुद को जुदा नहीं देखा

शहर में थे हरेक सम्त यूँ तो दैरो-हरम
क़सम खुदा की कहीं भी खुदा नहीं देखा

अमीरे-शहर चरागाँ की बात करता है
किसी ग़रीब का बुझता दिया नहीं देखा

तलाश-ए-हक में ज़माने की ठोकरें खाके
तुम्ही कहो के 'मनु' तुमने क्या नहीं देखा</poem>
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