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|रचनाकार='अना' क़ासमी
|संग्रह=
}}
{{KKCatGhazal}}
<poem>
माने जो कोई बात, तो इक बात बहुत है,
सदियों के लिए पल की मुलाक़ात बहुत है ।
दिन भीड़ के पर्दे में छुपा लेगा हर इक बात,
ऐसे में न जाओ, कि अभी रात बहुत है ।
महिने में किसी रोज़, कहीं चाय के दो कप,
इतना है अगर साथ, तो फिर साथ बहुत है ।
रसमन ही सही, तुमने चलो ख़ैरियत पूछी,
इस दौर में अब इतनी मदारात<ref>हमदर्दी</ref> बहुत है ।
दुनिया के मुक़द्दर की लक़ीरों को पढ़ें हम,
कहते है कि मज़दूर का बस हाथ बहुत है ।
फिर तुमको पुकारूँगा कभी कोहे 'अना'<ref>स्वाभिमान</ref>से,
अय दोस्त अभी गर्मी-ए- हालात बहुत है ।
</poem>
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माने जो कोई बात, तो इक बात बहुत है,
सदियों के लिए पल की मुलाक़ात बहुत है ।
दिन भीड़ के पर्दे में छुपा लेगा हर इक बात,
ऐसे में न जाओ, कि अभी रात बहुत है ।
महिने में किसी रोज़, कहीं चाय के दो कप,
इतना है अगर साथ, तो फिर साथ बहुत है ।
रसमन ही सही, तुमने चलो ख़ैरियत पूछी,
इस दौर में अब इतनी मदारात<ref>हमदर्दी</ref> बहुत है ।
दुनिया के मुक़द्दर की लक़ीरों को पढ़ें हम,
कहते है कि मज़दूर का बस हाथ बहुत है ।
फिर तुमको पुकारूँगा कभी कोहे 'अना'<ref>स्वाभिमान</ref>से,
अय दोस्त अभी गर्मी-ए- हालात बहुत है ।
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