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लोक-जीवन से अभिव्यंजना का माध्यम ग्रहण करने की जिस प्रवृत्ति से कविता प्रयोग का खेल बनने से बच गई, उसी ने मेरी इन कविताओं के भीतर प्रेरणा का कार्य किया है । छोटे से जीवन के इतने वर्ष मैंने अनुवाद को नहीं, नई रचना को दिए हैं । मेरे इस कथन की सत्यता में जिन्हें विश्वास होगा, उनके निकट मेरी इन कविताओं का कुछ मूल्य अवश्य होगा । जो मुझे अप्रामाणिक अनुवादक सिद्ध करने पर तुले बैठे हैं, उनसे मुझे पहले भी कुछ नहीं कहना था, आज भी कुछ नहीं कहना है ।
'''ठाकुरप्रसाद सिंह'''
ईश्वरगंगी,वाराणसी
१९५९
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