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Kavita Kosh से
वही सबका सत्य है'
—यह बात बहुत सीधी थी
लेकिन वे चीज़ो पर उल्टा विचार करते थे
उन्होंने सबके लिए एक आचार संहिता तैयार की थी
लेकिन ख़ुद अपने विशेषाधिकार में जीते थे
उनकी कसौटियाँ झाँवें की तरह खुरदुरी थीं
जिसे वे आदमियों की त्वचा पर रगड़ते थे
और इस तरह कसते थे आदमियों को
आदमी बड़ा था और कसौटियाँ छोटी
इस पर वे झुँझलाते थे
और आदमी को रगड़-रगड़कर
छोटा करते जाते थे
उन्होंने गौर से देखा
उस ज़िद्दी अड़ियल आदमी को
नंगा करके उसकी एक-एक माँसपेशी को
उसके सधे तने शरीर
और उसकी बुनी हुई रस्सी जैसी भुजाओं को
जो उनके सुख बाँटने की माँग कर रहा था
'यह पूरा का पूरा आदमी
एक संक्रामक रोग है'
वे बुदबुदाए
और जल्दी-जल्दी
अध्यादेशों पर दस्तख़त करने लगे।
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