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अन्वेषण / रामनरेश त्रिपाठी

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मैं ढूँढता तुझे था, जब कुंज और वन में ।में।तू खोजता मुझे था, तब दीन के सदन में ।।में॥
तू 'आह' बन किसी की, मुझको पुकारता था ।था।मैं था तुझे बुलाता, संगीत में भजन में ।।में॥
मेरे लिए खड़ा था, दुखियों के द्वार पर तू मैं बाट जोहता था, तेरी किसी चमन में ।।में॥
बनकर किसी के आँसू, मेरे लिए बहा तू ।तू।आँखे लगी थी मेरी, तब मान और धन में ।।में॥
बाजे बजाबजा कर, मैं था तुझे रिझाता ।रिझाता।तब तू लगा हुआ था, पतितों के संगठन में ।।में॥
मैं था विरक्त तुझसे, जग की अनित्यता पर ।पर।उत्थान भर रहा था, तब तू किसी पतन में ।।में॥
बेबस गिरे हुओं के, तू बीच में खड़ा था ।था।मैं स्वर्ग देखता था, झुकता कहाँ चरन में ।।में॥
तूने दिया अनेकों अवसर न मिल सका मैं ।मैं।तू कर्म में मगन था, मैं व्यस्त था कथन में ।।में॥
तेरा पता सिकंदर को, मैं समझ रहा था ।था।पर तू बसा हुआ था, फरहाद कोहकन में ।।में॥
क्रीसस की 'हाय' में था, करता विनोद तू ही । ही।तू अंत में हँसा था, महमूद के रुदन में ।।में॥
प्रहलाद जानता था, तेरा सही ठिकाना ।ठिकाना।तू ही मचल रहा था, मंसूर की रटन में ।।में॥
आखिर चमक पड़ा तू गाँधी की हड्डियों में ।में।मैं था तुझे समझता, सुहराब पीले तन में ।।में॥
कैसे तुझे मिलूँगा, जब भेद इस कदर है ।है।हैरान होके भगवन, आया हूँ मैं सरन में ।।में॥
तू रूप की किरन में सौंदर्य है सुमन में ।में।तू प्राण है पवन में, विस्तार है गगन में ।।में॥
तू ज्ञान हिन्दुओं में, ईमान मुस्लिमों में ।में।तू प्रेम क्रिश्चियन में, तू सत्य है सुजन में ।।में॥
हे दीनबंधु ऐसी, प्रतिभा प्रदान कर तू ।तू।देखूँ तुझे दृगों में, मन में तथा वचन में ।।में॥
कठिनाइयों दुखों का, इतिहास ही सुयश है ।है।मुझको समर्थ कर तू, बस कष्ट के सहन में ।।में॥
दुख में न हार मानूँ, सुख में तुझे न भूलूँ ।भूलूँ।ऐसा प्रभाव भर दे, मेरे अधीर मन में ।।में॥
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