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भीतर जागा दाता / अज्ञेय

9 bytes added, 15:58, 22 दिसम्बर 2011
<poem>
मतियाया
सागर लहराया। लहराया ।
तरंग की पंखयुक्त वीणा पर
पवन से भर उमंग से गाया। गाया ।
फेन-झालरदार मखमली चादर पर मचलती
किरण-अपसराएँ अप्सराएँ भारहीन पैरों से थिरकीं- थिरकीं— जल पर आलते की छाप छोड़ पल-पल बदलती। बदलती ।
दूर धुँधला किनारा
झूम-झूम आया, डगमगाया किया। किया ।
मेरे भीतर जागा
दाता
बोला :
लो, यह सागर मैंने तुम्हें दिया। दिया ।
हरियाली बिछ गयी गई तराई पर,
घाटी की पगडण्डी
लजाई और ओट हुई-
पर चंचला रह न सकी, फिर उझकी और झाँक गयी। गई । छरहरे पेड़ की नयी नई रंगीली फुनगी आकाश के भाल पर जय-तिलक आँक गयी। गई ।
गेहूँ की हरी बालियों में से
कभी राई की उजली, कभी सरसों की पीली फूल-ज्योत्स्ना दिप गयीगई, कभी लाली पोस्ते की सहसा चौंका गयी- गई—कभी लघु नीलिमा तीसी की चमकी और छिप गयी। गई ।
मेरे भीतर फिर जागा
दाता
और मैंने फिर नीरव संकल्प किया :
लो, यह हरी-भरी धरती-यह धरती—यह सवत्सा कामधेनु-मैंने कामधेनु—मैंने तुम्हें दी
आकाश भी तुम्हें दिया
यह बौर, यह अंकुर, ये रंग, ये फूल, ये कोंपलें,
ये दूधिया कनी से भरी बालियाँ,
ये मैंने तुम्हें दीं। दीं ।
आँकी-बाँकी रेखा यह,
मेड़ों पर छाग-छौने ये किलोलते,
यह तलैया, गलियारा यह
सरसों सारसों के जोड़े, मौन खड़े पर तोलते- तोलते—
यह रूप जो केवल मैंने देखा है,
यह अनुभव अद्वितीय, जो केवल मैंने जिया,
सब तुम्हें दिया।
एक स्मृति से मन पूत हो आया। आया । एक श्रद्धा से आहुत आहूत प्राणों ने गाया। गाया । एक प्यार की ज्वार दुर्निवार बढ़ आया। आया ।
मैं डूबा नहीं उमड़ा-उतराया,
फिर भीतर
यह मैं, यह तुम, यह खिलना,
यह ज्वार, यह प्लवन,
यह प्यार, यह अडूब उमड़ना- उमड़ना—सब तुम्हें दिया। दिया ।
सब
तुम्हें
दिया। दिया ।
</poem>
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