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वह यह प्रदीप जो दीख रहा है झिलमिल दूर नही है<br>
थक कर बैठ गये क्या भाई मन्जिल दूर नही है<br><br>
चिन्गारी बन गयी लहू की बून्द गिरी जो पग से<br>
चमक रहे पीछे मुड देखो चरण-चिनह जगमग से<br>
शुरू हुई आराध्य भूमि यह क्लांत नहीं रे राही;<br>
और नहीं तो पाँव लगे हैं क्यों पड़ने डगमग से<br>
बाकी होश तभी तक, जब तक जलता तूर नही है<br>
थक कर बैठ गये क्या भाई मन्जिल दूर नही है<br><br>
अपनी हड्डी की मशाल से हृदय चीरते तम का,<br>
सारी रात चले तुम दुख झेलते कुलिश निर्मम का।<br>एक खेय खेप है शेष, किसी विध पार उसे कर जाओ;<br>
वह देखो, उस पार चमकता है मन्दिर प्रियतम का।<br>
आकर इतना पास फिरे, वह सच्चा शूर नहीं है;<br>
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