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रुख से ज़ुल्फ़ें जब महे-कामिल में सरकाते हैं वो
तीरगी सदियों की पल में दूर कर जाते हैं वो
मुस्कुरा कर बख्श वह बढ़ा देते हैं मुझे बेचैनियाँबेचैनी मेरी उनसे पूछो किसलिए दिल मेरा को मेरे किसलिए हर रोज़ तड़पाते हैं वो
बेख़ुदी की इन्तिहाँ कहते हैं इसको दोस्तोंपी के सो जाता में उनकी जानिब जब कभी खिंचता हूँ मैं बेरुख़ी के जाम को आँखों से छलकाते हैं वो
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