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रात सुनसान थी, बोझल थी फज़ा की साँसें <br />रूह पे छाये थे बेनाम ग़मों के साए <br />दिल को ये ज़िद थी कि तू आए तसल्ली देने <br />मेरी कोशिश थी कि कमबख्त को नींद आ जाए<br />
देर तक आंखों में चुभती रही तारों कि चमक <br />देर तक ज़हन सुलगता रहा तन्हाई में <br />अपने ठुकराए हुए दोस्त की पुरसिश के लिए <br />तू न आई मगर इस रात की पहनाई में <br />
यूँ अचानक तेरी आवाज़ कहीं से आई <br />
जैसे परबत का जिगर चीर के झरना फूटे
या ज़मीनों कि मुहब्बत में तड़प कर नागाह
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