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<Poem>
'''क्या हुआ'''
क्या हुआ
ये क्यों हुआ
कि उसके मन में
लहलहाता प्यार है
पर जिंदगी अपनी
बेजान सी जीने को वो लाचार है
वह हवा को सांस में भरता रहा
करता रहा
भरपूर कसरत बाजुओं की
जो ज़माने पर टिकी थीं
उन सभी के साथ
जो बदलना चाहते थे आंधियों का रुख़
पक्षी-परिंदों से
प्यार करना चाहता वह
चाहता मज़बूत और लंबे डगों से
उस ज़मीं को नापना वह
जोतता जिसको रहा वह उम्रभर
उम्रभर सींचता रहा
इंसानियत की क्यारियों को
बात जो करता रहा पौधों से घुट-घुट
एक रिश्ता प्यार का बनता रहा
बनाता रहा...
खिलाता रहा जो फूल मन में
लाल फूल - प्रतीक निश्चल प्रेम के
एक घर
आकंठ जो डूबा रहा
मेहनत की अंधेरी खाइयों में
एक टुकड़ा धूप की ख़ातिर
क्या हुआ ....
कि छीनकर टुकड़े को अब
बादल समझता जीत अपनी
पाठ जो पढ़ता रहा इंसानियत का
झेलता ही जा रहा जो मुश्किलों को
मुश्किलों में
चुटकी बजाकर......
उड़ता रहा बेख़ौफ़ उन बाजों के बीच
तोलते ही जा रहे जो
उसके हरेक क़दम को
और जिनको सालते तमाम डर
कि क्यों नहीं मजबूर है वो
उनकी जूतियां चाटने को
कि क्यों चलता है वह अपना सीना तानकर
उनके सामने पूछे बिना
क्या हुआ
हलकान जो होना पड़ा उसको
क्या हुआ कि
घोंसला उसका उजड़ना
लाजिमी ही बन गया
क्या हुआ
जो चोट तक करने लगा उसका विचार
दोस्तों के बीच
जिनको समझता वो रहा ताउम्र
अपना जिगरी दोस्त ही
क्या हुआ
उसकी हँसी अब नहीं बिखरती वादियों में
क्या हुआ जो
एक तमग़ा ख़ास उसको दे दिया
क्या हुआ
उसके अपने चमन ने रास्ता उसको दिखाया
उन बीहड़ों का
जिनसे होकर वो चला था
बेदम कभी पहले-पहल
जूझने को!!
31/01/2012
</poem>
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}}
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<Poem>
'''क्या हुआ'''
क्या हुआ
ये क्यों हुआ
कि उसके मन में
लहलहाता प्यार है
पर जिंदगी अपनी
बेजान सी जीने को वो लाचार है
वह हवा को सांस में भरता रहा
करता रहा
भरपूर कसरत बाजुओं की
जो ज़माने पर टिकी थीं
उन सभी के साथ
जो बदलना चाहते थे आंधियों का रुख़
पक्षी-परिंदों से
प्यार करना चाहता वह
चाहता मज़बूत और लंबे डगों से
उस ज़मीं को नापना वह
जोतता जिसको रहा वह उम्रभर
उम्रभर सींचता रहा
इंसानियत की क्यारियों को
बात जो करता रहा पौधों से घुट-घुट
एक रिश्ता प्यार का बनता रहा
बनाता रहा...
खिलाता रहा जो फूल मन में
लाल फूल - प्रतीक निश्चल प्रेम के
एक घर
आकंठ जो डूबा रहा
मेहनत की अंधेरी खाइयों में
एक टुकड़ा धूप की ख़ातिर
क्या हुआ ....
कि छीनकर टुकड़े को अब
बादल समझता जीत अपनी
पाठ जो पढ़ता रहा इंसानियत का
झेलता ही जा रहा जो मुश्किलों को
मुश्किलों में
चुटकी बजाकर......
उड़ता रहा बेख़ौफ़ उन बाजों के बीच
तोलते ही जा रहे जो
उसके हरेक क़दम को
और जिनको सालते तमाम डर
कि क्यों नहीं मजबूर है वो
उनकी जूतियां चाटने को
कि क्यों चलता है वह अपना सीना तानकर
उनके सामने पूछे बिना
क्या हुआ
हलकान जो होना पड़ा उसको
क्या हुआ कि
घोंसला उसका उजड़ना
लाजिमी ही बन गया
क्या हुआ
जो चोट तक करने लगा उसका विचार
दोस्तों के बीच
जिनको समझता वो रहा ताउम्र
अपना जिगरी दोस्त ही
क्या हुआ
उसकी हँसी अब नहीं बिखरती वादियों में
क्या हुआ जो
एक तमग़ा ख़ास उसको दे दिया
क्या हुआ
उसके अपने चमन ने रास्ता उसको दिखाया
उन बीहड़ों का
जिनसे होकर वो चला था
बेदम कभी पहले-पहल
जूझने को!!
31/01/2012
</poem>