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शिकवा / इक़बाल

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''टिप्पणी: शिकवा इक़बाल की शायद सबसे चर्चित रचना है जिसमें उन्होंने इस्लाम के स्वर्णयुग को याद करते हुए ईश्वर से मुसलमानों की हालत के बारे में शिकायत की है ।''
क्यूँ ज़ियाकार ज़ियांकार बनूँ, सूद फ़रामोश रहूँ
फ़िक्र-ए-फ़र्दा<ref>कल की चिन्ता</ref> न करूँ, महव<ref>खोया रहना</ref>-ए-ग़म-ए-दोश रहूँ
नाले बुलबुल की सुनूँ और हमा-तन-गोश<ref>चुपचाप सुनना </ref> रहूँ
आग तकबीर <ref>ये स्वीकारना कि अल्लाह एक है और मुहम्मद उसका दूत था, इस्लाम कबूल करना या करवाना </ref> की सीनों में दबी रखते हैं
ज़िंदगी मिस्ल-ए-बिलाल-ए-हवसी हबसी रखते हैं ।
इश्क़ की ख़ैर, वो पहली सी अदा भी न सही
आज क्यूँ सीने हमारे शराराबाज़ नहीं ?
हम वही शोख़ सा दामांसोख़्ता सामां हैं, तुझे याद नहीं ?
वादी ए नज्द में वो शोर-ए-सलासिल <ref>जंज़ीर </ref> न रहा ।
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