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करुणे !
तम घिरी अमावश्या में
आयीं मेरे जीवन-गृह में
आलोक-भविष्यत् बनकर।।
मानवी-सृष्टि करुणा-प्रधान
जग का स्रष्टा करुणामय है
करुणा भावों में श्रेष्ठ भाव
कवि-हृदय स्वयं करुणालय है।।
ओ दीन-कुटी की आवासिनि !
संतों की सुधामयी बाणी
कातर पुकार चिर बिरही की।।
ओ क्षमा-दया की मलय-निलय
छायावादी कवि की आश्रय,
उद्भ्रान्त-क्लान्त पथिकों की
हे, शीतल सुखमय विश्रामालय।।
भोले स्वरूप में अमिय-सृष्टि
कोमल वाणी में सुमन-वृष्टि
नख से शिख ‘ करुण रसः एको ’
गम्भीर दूर-दर्शिणी दृष्टि!!
इस पीत-पराग ‘जलज‘ में
मृदु मकरन्दोत्सव बनकर
कर दिया सुगंधित जीवन
सुषमा-सौरभ विखराकर।।
गूँजे करुणा॰जलि मेरी
करुणा के करुणा॰चल में