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हनी / त्रिपुरारि कुमार शर्मा

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बड़ी अजीब-सी लड़की है, पूरी ज़िद्दी है
कि जिसको प्यार से मैं भी ‘हनी’ बुलाता हूँ
ज़रा-सी बात पर ही मुंह बनाए बैठी है
उसे पता ही नहीं जब वो रूठ जाती है
रगों में मेरी कुछ ख़ून जम-सा जाता है
कम हो जाती है साँस की रफ़्तार मेरी
और लग जाते हैं मेरे लबों पर मुहर
जैसे आवाज़ में चूभ जाए टूटा काँच कोई
बहुत नादान हैं उसकी तमन्नाएँ अभी
मगर ताज़े हैं उसकी अदाओं के गुलाब
एक-एक पंखुड़ी में जैसे बाग़ बसते हैं
मैं कैसे बोलूँ उसे कैसे समझाऊँ उसे
कि आँख भर के जब जिसको ताक लेगी वो
कभी सकून न पाएगा दिल क़यामत तक
और छू लेगी अगर जिस किसी को चाहत में
क़सम ख़ुदा की उसे ज़िंदगी नसीब हुई
मैं कैसे बोलूँ उसे कैसे समझाऊँ उसे
अभी वो बेख़बर है ख़ुद के ही तकाज़ों से
बड़ी अजीब-सी लड़की है, पूरी ज़िद्दी है
कि जिसको प्यार से मैं भी ‘हनी’ बुलाता हूँ
<Poem>
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