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इस निरभ्रा चाँदनी में
आज फिर गूँथ जाय गुँथ जाए तेरी छाहछाँह, मेरी छाहछाँह
नयन - कोरों पर ,
लातों के मुक्त छोरों पर
टूटती हैं नीम से छनती किरण
रुक गया हो रूप निर्झर पर, की कि जैसे
अमरता का क्षण,
एक तरलता उष्णता हैं --
जो कि राग -- रागनाप ठंडे बदनो को खोलती हैं
वारुणी --संज्ञावती हैं ,
आत्म --प्लावक मानसर में
आज फिर बुझ जाय जाए तेरा दाह , मेरा दाह ।
जो कछारों में
न बोला नमस्करों में
अर्थ वह इस प्राण का चंदन ,महकता हैं ,पर नही करताकिसी अभिव्यक्ति का पूजन ,
आत्मजा हर लहर मन की
कुछ अनामा उर्जामाय लय तरंगों में थकू थकूँ मैं ,स्रष्टि को दोहरा सकू मैं ,
शब्द गर्वित जो नही वह
आज फिर चुक जाए तेरी चाह में , मेरी चाह .।
दूर के वन में
दिशाओं के समापन में
हर प्रहार स्वीकारता जाता
यह विमुक्ता देह मेरी ,
दो मुझे तुम रूप-- क्षण का स्पर्श ,चेतन तक गलू गलूँ मैंऔर अनुक्षण जन्म लू लूँ मैं ,
ओ निमग्ने !
एक मंगल --विलय तक मुड़ जाए , तेरी राह , मेरी राह .।
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