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{{KKRachna
|रचनाकार=रविंदर कुमार सोनी
}}
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लिहाज़ है कुछ न तुम ओ तू का
ये क्या सलीक़ा है गुफ़्तगू का
मिली मुहब्बत में सुर्ख़रूई
रहा न ग़म कोई आबरू का
मिला जो ज़हर ए ग़म ए मुहब्बत
तो रँग गहरा हुआ लहू का
नसीम की छेड़ है कली से
ये राज़ पिन्हाँ है रँग ओ बू का
ये हुस्न ए कामिल की बे हिजाबी
तो इक तमाशा है आरज़ू का
डुबो चुके कल जो अपनी किश्ती
उन्हें है ग़म आज आबजू का
रवि पे माइल न हो ज़माने
कि टूट जाएगा दिल अदू का
</poem>
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|रचनाकार=रविंदर कुमार सोनी
}}
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लिहाज़ है कुछ न तुम ओ तू का
ये क्या सलीक़ा है गुफ़्तगू का
मिली मुहब्बत में सुर्ख़रूई
रहा न ग़म कोई आबरू का
मिला जो ज़हर ए ग़म ए मुहब्बत
तो रँग गहरा हुआ लहू का
नसीम की छेड़ है कली से
ये राज़ पिन्हाँ है रँग ओ बू का
ये हुस्न ए कामिल की बे हिजाबी
तो इक तमाशा है आरज़ू का
डुबो चुके कल जो अपनी किश्ती
उन्हें है ग़म आज आबजू का
रवि पे माइल न हो ज़माने
कि टूट जाएगा दिल अदू का
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