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Kavita Kosh से
थाम कर चन्द सिक्के स्वयं हाथ में
लाज अपनी लुटाकर गयी द्रोपदी,
घट रही रोज ही यह नयी त्रासदी,
घेर कर मार डाला गया छांव में
एक अभिमन्यु मेरी नजर के सामने,
रक्त से भीगते रह गये वक्त के
कांपते पल घृणा की हदें नापते,