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किस तरह जी रहे हैं हमें कुछ पता नहीं
मुद्दत हुई कि उसने कोई ख़त लिखा नहीं

अल्लाह रे हवस में क्या से क्या बना दिया
सब कुछ है मेरे पास मगर दिल भरा नहीं

इससे ज़ियादा और कहूँ भी तो क्या कहूँ
इन्सान मैं बुरा मगर दिल बुरा नहीं

जीते हैं लोग खामखां मरने के खौफ से
कहने को जी रहे हैं मगर कुछ मज़ा नहीं

मरने के बाद मुर्दे को चोराहे पे रखा
दो चार बस भी फूंक दीं ज़िन्दा हुआ नहीं

दंगों में अजब हाल था कमज़र्फ़ ज़हन का
मैं उससे लड़ रहा था जिसे जानता नहीं

हर आदमी के दिल में 'मनु' प्यार ही रहे
हमने तो लाख चाहा मगर हो सका नहीं</poem>
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