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'''लौटकर आओ आओं चले'''
लौटकर आओ आओं चलें हम गाँव अपने, अब हमारा मन कहीं लगता नहीं
जेब मे सिक्के भरे हैं कंकड़ों से
व्यस्तता तन पर खिली परिधान बनकर
औपचारिक हो गयी है बन्दगी,
दिवस कोई चैन से कटता नहीं
बात के अन्दाज हैं तौले सधे,
इस तरह हित साधना में मग्न जैसे
है तनावों का उछलता ज्वार मन में
किन्तु दिखता आज कुछ धटता घटता नहीं
चल रहे पुष्पक सरीखी गति पकड़कर
धन कुबेरों से मिले आवास है,
रूढ़ियाँ होकर पराजित सर्प जैसी
बीतता है हर दिवस अब हलचलों में
पर कहीं उल्लास है दिखता नहीं
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