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सूरप्रभु हरि-नाम उधारत जग-जननि, गुननि कौं देखि कै छकित भयौ छंद ॥<br><br>
भावार्थ :-- (माता कहती हैं -) `सबेरा हो गया, नन्दनन्दन ! जागो । लाल ! रात बीत गयी । (सबेरा होनेसेहोने से) चक्रवाकी (पक्षी) को आनन्द हो रहा है, सूर्य की किरणों से चन्द्रमा तेजोहीन तेज हीन हो गया । मुर्गे तथा अन्य पक्षी कोलाहल कर रहे हैं, भौंरे खूब गुंजार करने लगे हैं; अब तुम झटपट गायोंके गलेकी गायों के गले की रस्सियाँ खोल दो । उठो,भोजन करो, (मुख धोकर कल की लगी) चंदन की खौर उतार दो, मैयाको मैया को अपने आनन्दकन्द शिशु -मुखको मुख को दिखलाऔ । गोपियाँ दधि-मन्थन करने लगी हैं, उसकी मधुर ध्वनि सुनायीपड़ सुनायी पड़ रही है, कृष्णचन्द्र ! वे तुम्हारे निर्मल यशका यश का स्मरण करके (उसे गाती हुई ) आनन्द मना रही है । सूरदासजी सूरदास जी कहते हैं कि मेरे स्वामीका स्वामी का नाम ही संसारके संसार के लोगों काउद्धार का उद्धार कर देता है, उनके गुणोंको गुणों को देखकर तो वेद भी चकरा जाते हैं (वे भी उनके गुणोंका गुणों का वर्णन नहीं कर पाते )।