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दिल्ली -दो / मंगलेश डबराल

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|संग्रह=हम जो देखते हैं / मंगलेश डबराल
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सड़कों पर बसों में बैठकघरों में इतनी बड़ी भीड़ में कोई नहीं कहता
 
आज मुझे निराला की कुछ पंक्तियाँ याद आयीं. कोई नहीं कहता मैंने
 
नागार्जुन को पढ़ा है. कोई नहीं कहता किस तरह मरे मुक्तिबोध.
 
एक कहता है मैंने कर ली है ख़ूब तरक़्क़ी. एक ख़ुश है कि उसे बस
 
में मिल गयी है सीट. एक कहता है यह समाज क्यों नहीं मानता
 
मेरा हुक्म. एक देख चुका है अपना पूरा भविष्य. एक कहता है देखिये
 
किस तरह बनाता हूँ अपना रास्ता.
 
एक कहता है मैं हूँ ग़रीब. मेरे पास नहीं है कोई और शब्द ।
 
(रचनाकाल: 1988)
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