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Kavita Kosh से
बहिन आई बाप के घर,
हाय रे परिताप के घर !
आज का दिन दिन नहीं है,
क्योंकि इसका छिन नहीं है,
एक छिन सौ बरस है रे,
हाय कैसा तरस है रे,
घर कि घर में सब जुड़े है,
उसे लिखना नहीं आता,
जो कि उसका पत्र पाता ।
और पानी गिर रहा है,
घर चतुर्दिक घिर रहा है,
पिताजी भोले बहादुर,
वज्र-भुज नवनीत-सा उर,
पिताजी जिनको बुढ़ापा,
एक क्षण भी नहीं व्यापा,
जो अभी भी दौड़ जाएँ,
जो अभी भी खिलखिलाएँखिल-खिलाएँ,
मौत के आगे न हिचकें,
आज गीता पाठ करके,
दंड दो सौ साठ करके,
खूब मुदगर मुगदर हिला लेकर,
मूठ उनकी मिला लेकर,
भुजा भाई प्यार बहिने,
खेलते या खड़े होंगे,
नज़र उनको पड़े होंगे।होंगे ।
पिताजी जिनको बुढ़ापा,
आज उनके स्वर्ण बेटे,
लगे होंगे उन्हें हेटे,
क्योंकि मैं उनपर उन पर सुहागा
बँधा बैठा हूँ अभागा,
और माँ ने कहा होगा,
आँख में किस लिए पानी,
वहाँ अच्छा है भवानी,
वह तुम्हारा मन समझकरसमझ कर,और अपनापन समझकरसमझ कर,
गया है सो ठीक ही है,
यह तुम्हारी लीक ही है,
धीर मैं खोता, कहाँ हूँ,
गिर रहा है आज पानी,याद अता है भवानी,उसे थी बरसात प्यारी,रात-दिन की झड़ी झारी, खुले सिर नंगे बदन वह,घूमता-फिरता मगन वह,बड़े बाड़े में कि जाता,बीज लौकी का लगाता, तुझे बतलाता कि बेलाने फलानी फूल झेला,तू कि उसके साथ जाती,आज इससे याद आती, मैं न रोऊँगा,—कहा होगा,और फिर पानी बहा होगा,दृश्य उसके बद का रे,पाँचवें की याद का रे, भाई पागल, बहिन पागल,और अम्मा ठीक बादल,और भौजी और सरला,सहज पानी,सहज तरला, शर्म से रो भी न पाएँ,ख़ूब भीतर छटपटाएँ,आज ऐसा कुछ हुआ होगा,आज सबका मन चुआ होगा । अभी पानी थम गया है,मन निहायत नम गया है,एक से बादल जमे हैं,गगन-भर फैले रमे हैं, ढेर है उनका, न फाँकें,जो कि किरनें झुकें-झाँकें,लग रहे हैं वे मुझे यों,माँ कि आँगन लीप दे ज्यों, गगन-आँगन की लुनाई,दिशा के मन में समाई,दश-दिशा चुपचाप है रे,स्वस्थ की छाप है रे, झाड़ आँखें बन्द करके,साँस सुस्थिर मंद करके,हिले बिन चुपके खड़े हैं,क्षितिज पर जैसे जड़े हैं, एक पंछी बोलता है,घाव उर के खोलता है,आदमी के उर बिचारे,किस लिए इतनी तृषा रे, तू ज़रा-सा दुःख कितना,सह सकेगा क्या कि इतना,और इस पर बस नहीं है,बस बिना कुछ रस नहीं है, हवा आई उड़ चला तू,लहर आई मुड़ चला तू,लगा झटका टूट बैठा,गिरा नीचे फूट बैठा, तू कि प्रिय से दूर होकर,बह चला रे पूर होकर,दुःख भर क्या पास तेरे,अश्रु सिंचित हास तेरे ! पिताजी का वेश मुझको,दे रहा है क्लेश मुझको,देह एक पहाड़ जैसे,मन की बड़ का झाड़ जैसे, एक पत्ता टूट जाए,बस कि धारा फूट जाए,एक हल्की चोट लग ले,दूध की नद्दी उमग ले, एक टहनी कम न होले,कम कहाँ कि ख़म न होले,ध्यान कितना फ़िक्र कितनी,डाल जितनी जड़ें उतनी ! इस तरह क हाल उनका,इस तरह का ख़याल उनका,हवा उनको धीर देना,यह नहीं जी चीर देना, हे सजीले हरी हरे सावन,हे कि मेरी मेरे पुण्य पावन,
तुम बरस लो वे न बरसें,
पाँचवे को वे न तरसें,
मैं मजे़ मज़े में हूँ सही है,
घर नहीं हूँ बस यही है,
इसी बस से सब विरस है,
उन्हें देते धीर रहना,
उन्हें कहना लिख रहा हूँ,
काम करता हूँ कि कहना,
नाम करता हूँ कि कहना,
चाहते है लोग , कहना,
मत करो कुछ शोक कहना,
कह न देना मौन हूँ मैं,
देखना कुछ बक न देना,
उन्हें कोई शक न देना,
हे सजीले हरे सावन,
हे कि मेरे पण्य पुण्य पावन,
तुम बरस लो वे न बरसे,
पाँचवें को वे न तरसें।तरसें ।</poem>