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प्रदूषित हुई हैं धरा की हवाएँ।
चलो फिर अहिंसा के बिरवे उगाएँ।।
 
 
बहुत वक़्त बीता कि जब इस चमन में
 
अहिंसा के बिरवे उगाए गए थे
 
थे सोये हुए भाव जनमन में गहरे
 
पवन सत्य द्वारा जगाये गये थे,
 
बने वृक्ष, वट-वृक्ष , छाया घनेरी
 
धरा जिसको महसूसती आज तक है
 
उठीं वक़्त की आँधियां कुछ विषैली
 
नियति जिसको महसूसती आज तक है,
 
नहीं रख सके हम सुरक्षित धरोहर
 
अभी वक़्त है, हम अभी चेत जाएँ।
 
चलो फिर अहिंसा के बिरवे उगाएँ।।