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|संग्रह=हवाओं के साज़ पर/ 'अना' क़ासमी
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रमूजे़-रंग<ref>रंग के इशारे</ref> खुशबू की ज़बाँ को कौन समझेगा
गुले-सद्बर्ग<ref>पूर्ण पल्लवित पुष्प</ref> की तर्जे-फ़ग़ाँ<ref> कराहने का ढंग</ref> को कौन समझेगा

मेरी आँखें भी नम हैं बावजू है उसका चेहरा भी
बजुज़रिन्दो<ref>शराबियों के सिवा</ref> के इस पीरे-मग़ाँ को कौन समझेगा

बुझेगी प्यास तो तश्नालबों पर बर्क़ खेलेगी
है क्यों पैहम दवाँ आबे रवाँ को कौन समझेगा

नहीं तो इक शिकस्ते-खामुशी का हफ्रे-अव्वल है
पसे इंकार मुज़्तर<ref> बेकरार</ref> उसकी हाँ को कौन समझेगा

वो तीमीरे-जहाँ<ref>युग निर्माण</ref> की बात अब क़िस्सा कहानी है
मगर इक़बाल के ख़्वाबे-गिराँ <ref>ऊँचे स्वप्न</ref> को कौन समझेगा

फ़लक की बात तो एहले-खि़रद सब जान बैठे हैं
जुनूँ को फ़िक्र है के इस जहाँ को कौन समझेगा

हुई बारिश तो हर दीवारो-दर से मेह बरसेगा
मकीं हूँ मैं जहाँ अब उस मकाँ को कौन समझेगा
<poem>
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