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|संग्रह=हवाओं के साज़ पर/ 'अना' क़ासमी
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<poem>
ये जुमला बहुत पहुँचे फ़क़ीरों ने कहा है
आहों से ग़रीबों की फ़लक झूल रहा है

इक मैं हूँ के जन्नत की फ़ज़ा भूल चुका हूँ
इक तू है के मुद्दत से मुझे ढूंढ़ रहा है

मैं अपने तग़ाफुल<ref>लापरवाही</ref> पे पशेमा<ref>शर्मिन्दा</ref> हूँ के हूँ इन्साँ
वो अपने इशारे पे अटल है के ख़ुदा है

अब मेरी लड़ाई ये मिरे बच्चे लड़ेंगे
शाख़ें तो सभी सूख चुकीं जख़्म हरा है

दिल और, दिमाग़ और, नज़र और, जबाँ और
इस दौर का इन्साँ कई हिस्सों में बँटा है

दुनिया तिरे ईमाँ के तआकुब<ref>पीछे पड़ना</ref> में लगी है
ये सोच के दिल थाम के ये ग़ारे हिरा<ref>वो गुफा सिमें हज़रत मोहम्मद स.अल्लाह का ध्यान करते थे और जहाँ उन्हें ईश्वरीय ज्ञान प्राप्त हुआ</ref>
<poem>
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