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<div style="font-size:15px; font-weight:bold">सप्ताह की कविता</div>
<div style="font-size:15px;">'''शीर्षक :काश ऐसा होता इक-इक पत्थर जोड़ के मैंने जो दीवार बनाई.. ('''रचनाकार:''' [[लीना टिब्बीक़तील शिफ़ाई]] )</div>
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</table><pre style="text-align:left;overflow:auto;height:21em;background:transparent; border:none; font-size:14px">
काश ऐसा होताकि ईश्वर मेरे बिस्तर के पास रखेपानी भरे गिलास के अन्दर सेबैंगनी प्रकाश पुंज-सा अचानक प्रकट हो जाता...(11 जुलाई को क़तील शिफ़ाई की पुण्यतिथि होती है )
काश ऐसा होताइक-इक पत्थर जोड़ के मैंने जो दीवार बनाई है कि ईश्वर शाम की अजान बन करहमारे ललाट से दिन भर की थकान पोंछ देता...झाँकूँ उसके पीछे तो रुस्वाई ही रुस्वाई है
काश ऐसा होताकि ईश्वर आसूँ की एक बूंद बन जाताजिसके लुढ़कने यों लगता है सोते जागते औरों का अफ़सोसमोहताज हूँ मैं हम मनाते रहते पूरे-पूरे दिन...आँखें मेरी अपनी हैं पर उनमें नींद पराई है
काश ऐसा होतादेख रहे हैं सब हैरत से नीले-नीले पानी को कि ईश्वर रूप धर लेता एक ऐसे पाप काहम कभी न थकते जिसकी भूरी-भूरी प्रशंसा करते...पूछे कौन समन्दर से तुझमें कितनी गहराई है
काश ऐसा होतासब कहते हैं इक जन्नत उतरी है मेरी धरती परकि ईश्वर शाम तक मुरझा जाने वाला गुलाब होतातो हर नई सुबहहम नया फूल ढूंढ कर ले आया करते...मैं दिल में सोचूँ शायद कमज़ोर मेरी बीनाई है
काश ऐसा होता...बाहर सहन में पेड़ों पर कुछ जलते-बुझते जुगनू थे(लीना टिब्बी अरबी भाषा की जानीहैरत है फिर घर के अन्दर किसने आग लगाई है आज हुआ मालूम मुझे इस शहर के चन्द सयानों से अपनी राह बदलते रहना सबसे बड़ी दानाई है तोड़ गये पैमाना-मानी कवियत्री हैं ) ए-वफ़ा इस दौर में कैसे कैसे लोग ये मत सोच "क़तील" कि बस इक यार तेरा हरजाई है
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