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|रचनाकार=महेश अश्क
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नहीं था, तो यही पैसा नहीं था
नहीं तो आदमी में क्या नहीं था।

परिंदों के परों भर आस्माँ से
मेरा सपना अधिक ऊँचा नहीं था।

यहाँ हर चीज वह हे, जो नहीं हे
कभी पहले भी ऐसा था-? नहीं था।

हसद से धूप काली थी तो क्यों थी
दिया सूरज से तो जलता नहीं था।

पर इम्कां के झुलसते जा रहे थे
कहीं भी दूर तक साया नहीं था।

हुआ यह था कि उग आया था हम में
मगर जंगल अभी बदला नहीं था।

जमीनों-आस्माँ की वुस्अतों में-
अटाए से भी मैं अटता नहीं था।

हमारे बीच चाहे और जो था
मगर इतना तो सन्नाटा नहीं था।

मुझे सब चाहते थे सस्ते-दामों
मुझे बिकने का फन आता नहीं था...।

</poem>