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इलाहाबाद में निराला / बोधिसत्व

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वह कृष्ण पाख की विकट रात<br>
था दूर-दूर तक अंधियारा<br>
अशरण था वह दुत्कारा ।<br><br>'''4<br><br>जाने को जा सकता था घर<br>पर मन में बैठ गया था डर<br>लोटे से मारेगा बेटा<br>बहू कहेगी दुर...दुर...दुर... ।<br>सुनने सहने की शक्ति नहीं<br>आँखें झरती थीं झर-झर<br>बूढे़ पीपल के तरु तर<br>चुपचाप सो गया वह थक कर ।<br><br>'''5<br><br>रात गए जागा वह बूढ़ा<br>खिसका अपनी जगह से<br>जैसे खिसकते हैं तारे<br>बिना सहारे<br>और गंगा के कचार की तरफ़ बढ़ गया<br>फिर वहाँ गायों को झुंड नहीं था<br>रंभाहट नहीं थी<br>पर लगता था वह घिरा है<br>देखने वालों की भीड़ से<br>गायों की रंभाहट चादर बन कर<br>छाई है उस निराला जैसे आदमी पर<br><br>कैसा-कैसा हो आया मन<br>मैं वहाँ क्या कर रहा था<br>जब वो आदमी मर रहा था<br>मैं सच में वहाँ था या<br>या कोई सपना निथर रहा था<br>अगर यह सपना नहीं था तो<br>वह आदमी कौन था जो<br>अपना था<br>अंधकार में वह क्यों रोया था<br>उसने सचमुच में कुछ खोया था ।<br><br>
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