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|रचनाकार=द्विजेन्द्र 'द्विज'
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गो अमावस की रात काली है
सर बुलन्द आज है उजाले का
घुप्प, काले, घने अँधेरे ने
अपनी गर्दन झुका- झुका ली है
फिर दियों की छटा निराली है
अब के फिर आ गई दिवाली है
जगमगाया है आज हर कोना
जैसे कण-कण चमक रहा सोना
दीपमाला पहन ली गलियों ने
आँगन-आँगन में अल्पनाएँ हैं
अल्पनाओं की इन लकीरों में
प्रिय के आने की कल्पनाएँ हैं
फूल ओढ़े हुए हैं दीवारें
द्वार-आँगन सजे-सजाये हैं
सारी दुनिया ने ऐसे मिलजुल कर
आज घी के दिए जलाये हैं
काट बनवास जैसे चौदह बरस
राम अयोध्या को लौट आये हैं
हैं उमंगों की मन में फुलझड़ियाँ
हौसले हैं हवाईयों जैसे
रॉकेटों की उड़ान तो देखो
फुलझड़ी की ये शान तो देखो
इन अनारों की जान तो देखो
रोशनी के मचान तो देखो
ज्योतिपुंजों की आन तो देखो
पर्व के वलवले निराले हैं
लौ के ये सिलसिले निराले हैं
मुँह छिपाता फिरे है अँधियारा
नाच उट्ठा है आज उजियारा
फिरकियाँ रोशनी की नाची हैं
रात के घुप्प काले सीने पर
पुतलियाँ रोशनी की नाची हैं
ज्योति की जीत है अँधेरे पर
तितलियाँ रोशनी की नाची हैं
घी उमंगों का धैर्य की बाती
जगमगाए सदा ही मन-दीपक
तेल जीवट का लक्ष्य की बाती
खिलखिलाए सदा ही मन-दीपक
हर क़दम हर घड़ी रहे रौशन
आपकी ज़िन्दगी उजालों से
रहती दुनिया तलक रहे कायम
दोस्तो ! दोस्ती उजालों से
हर अँधेरे को जीतने के लिए
धैर्य की नग़्मगी रहे मन में
आस की चाँदनी रहे मन में
सत्य की रौशनी रहे मन में
आस्था की जड़ी रहे मन में
आँगन-आँगन में अल्पनाएँ हों
जिनकी चित्रावली रहे मन में
हर नया दिन हो एक दीप-उत्सव
हर्ष की इक नदी रहे मन में
अगली दीपावली के आने तक
रोज़ दीपावली रहे मन में.
</poem>
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<poem>
गो अमावस की रात काली है
सर बुलन्द आज है उजाले का
घुप्प, काले, घने अँधेरे ने
अपनी गर्दन झुका- झुका ली है
फिर दियों की छटा निराली है
अब के फिर आ गई दिवाली है
जगमगाया है आज हर कोना
जैसे कण-कण चमक रहा सोना
दीपमाला पहन ली गलियों ने
आँगन-आँगन में अल्पनाएँ हैं
अल्पनाओं की इन लकीरों में
प्रिय के आने की कल्पनाएँ हैं
फूल ओढ़े हुए हैं दीवारें
द्वार-आँगन सजे-सजाये हैं
सारी दुनिया ने ऐसे मिलजुल कर
आज घी के दिए जलाये हैं
काट बनवास जैसे चौदह बरस
राम अयोध्या को लौट आये हैं
हैं उमंगों की मन में फुलझड़ियाँ
हौसले हैं हवाईयों जैसे
रॉकेटों की उड़ान तो देखो
फुलझड़ी की ये शान तो देखो
इन अनारों की जान तो देखो
रोशनी के मचान तो देखो
ज्योतिपुंजों की आन तो देखो
पर्व के वलवले निराले हैं
लौ के ये सिलसिले निराले हैं
मुँह छिपाता फिरे है अँधियारा
नाच उट्ठा है आज उजियारा
फिरकियाँ रोशनी की नाची हैं
रात के घुप्प काले सीने पर
पुतलियाँ रोशनी की नाची हैं
ज्योति की जीत है अँधेरे पर
तितलियाँ रोशनी की नाची हैं
घी उमंगों का धैर्य की बाती
जगमगाए सदा ही मन-दीपक
तेल जीवट का लक्ष्य की बाती
खिलखिलाए सदा ही मन-दीपक
हर क़दम हर घड़ी रहे रौशन
आपकी ज़िन्दगी उजालों से
रहती दुनिया तलक रहे कायम
दोस्तो ! दोस्ती उजालों से
हर अँधेरे को जीतने के लिए
धैर्य की नग़्मगी रहे मन में
आस की चाँदनी रहे मन में
सत्य की रौशनी रहे मन में
आस्था की जड़ी रहे मन में
आँगन-आँगन में अल्पनाएँ हों
जिनकी चित्रावली रहे मन में
हर नया दिन हो एक दीप-उत्सव
हर्ष की इक नदी रहे मन में
अगली दीपावली के आने तक
रोज़ दीपावली रहे मन में.
</poem>