भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

Changes

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

कभी कभी / अज्ञेय

723 bytes added, 11:18, 10 अगस्त 2012
{{KKCatKavita}}
<Poem>
:::(1)
दिन जो रोज़ डूबते हैं
बीतते हैं
घड़े जो रोज़ छलकते, रीतते हैं
भरते हैं
 
:::(2)
नियति जो बारती है लाखों घड़ी-घड़ी
देती है दमड़ी भर दान
कभी कभी
मैं जो मानता हूँ कि अपने को ख़ूब जानता हूँ
पाता हूँ अपनी ही पहचान
कभी कभी
मैं ने लिखा बहुत तुम्हारे लिए
पर सचाई की तड़प में किया याद
कभी कभी
पागल तो हूँ, सदा रहा तुम्हारे लिए
पाया पर वासना से परे का उन्माद
कभी कभी।
</poem>
Delete, KKSahayogi, Mover, Protect, Reupload, Uploader
19,164
edits