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मेघदूत / रवीन्द्रनाथ ठाकुर

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अन्त में सब मिलकर एकाकार हो जाते हैं
और सारे व्योम पर अधिकार जमा लेते हैं ।
 
उस दिन के बाद से
स्निग्ध,नवीन वर्षा का प्रथम दिवस
सैंकडों बार आकर चला गया है .
प्रत्येक वर्षा
तुम्हारे काव्य पर नई वृष्टि-धारा बरसाकर
उसे नया जीवन डे गई है,
उसके भीतर नई-नई
जलद-मन्द्र प्रतिध्वनियाँ संचरित कर गई है,
तुम्हारे छंद के स्रोत-वेग को
वर्षा की नदी के समान स्फीत बना गई है .
कितने काल से कितने विरही लोगों ने
प्रियतमा से विहीन गृहों में
आषाढ़ की ऐसी संध्या के समय
जो वृष्टिक्लांत और अत्यंत दीर्घ है,
जिसके तारे और चन्द्रमा लुप्त हो गये हैं,
दीपों के छीन प्रकाश में बैठकर
उस छंद को मंद-मंद पढ़ कर
अपनी विरह-वेदना को विलीन किया है.
उन सबका कंठ-स्वर
तुम्हारे काव्य के भीतर से
सर-तरंग की कलध्वनि के समान
मेरी श्रुतियों में प्रवेश करता है .
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
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