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Kavita Kosh से
ध्वस्त सारे हो गए हैं!
किंतु इस गतिवान जीवन का
यही यो तो बस नही नहीं है.
अभी तो चलना बहुत है,
अगर मिट्टी से
टूट मिट्टी में मिले होते,
ह्रदय में शांत रखता,
है बहुत विश्वास मुझको.
वह नही नहीं बेकार होकर बैठती है
एक पल को,
फिर उठेगी.
बने ये स्वप्न होते
तो मुरझाकर
कवि-सहज भोलेपन पर
मुसकराता, किंतु
क्या हुआ जो आज सूखा,
फिर उगेगा,
फिर खिलेगा.
बने ये स्वप्न होते,
टूटते या विकृत होते,
किसलिए पछताव होता?
स्वर्ण अपने तत्व का
इतना धनि धनी है,
वक्त के धक्के,
समय की छेडखानी छेड़खानी सेनाही कुच नहीं कुछ भी कभी उसका बिगरताबिगड़ता.
स्वयं उसको आग में
मैं झोंक देता,
किंतु इसको क्या करूँ मैं,
स्वप्न मेरे कांच काँच के थे!एक स्वर्गिक आंच आँच ने
उनको ढला था,
एक जादू ने सवारा था, रंगा रँगा था.
कल्पना किरणावली में
वे जगर-मगर हुए थे.
टूटने के वास्ते थे ही नाही नहीं वे
किंतु टूटे
तो निगलना ही पड़ेगा
आँख को यह
क्षुर-सुतिक्षण सुतीक्ष्ण यथार्थ दारुण!
कुछ नहीं इनका बनेगा.
पाँव इन पर धार बढ़ना ही पड़ेगा
घाव-रक्तस्त्राव सहते.
वज्र छाती पर धंसालोधंसा लो,
पाँव में बांधा ना जाता.
लड़खड़ाता, लड़खड़ाता, लड़खड़ाता.