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मन प्रबोध / सूरदास

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प्रान लए जम जात, मूढ़-मति देखत जननी-तात ।
 
छन इक माहिं कोटि जुग बीतत, नर की केतिक बात ।
यह जग-प्रीति सुवा-सेमर ज्यों, चाखत ही उड़ि जात ।
 
जमकैं फंद पर्‌यौ नहिं जब लगि, चरननि किन लपटात ?