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{{KKRachna
|रचनाकार=वीरेन्द्र खरे 'अकेला'
}}
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पूछो मत क्या हाल-चाल हैं
पंछी एक हज़ार जाल हैं
पथरीली बंजर ज़मीन है
बेधारे सारे कुदाल हैं
ऊँघे हैं गणितज्ञ नींद में
अनसुलझे सारे सवाल हैं
जिसकी हाँ में हाँ न मिलाओ
उसके ही अब नेत्र लाल हैं
होगी प्रगति पुस्तकालय की
मूषक जी अब ग्रंथपाल हैं
मंज़िल तक वो क्या पहुँचेंगे
जो दो पग चल कर निढाल हैं
जस की तस है जंग 'अकेला'
हाथों-हाथों रेतमाल हैं
</poem>
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|रचनाकार=वीरेन्द्र खरे 'अकेला'
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पूछो मत क्या हाल-चाल हैं
पंछी एक हज़ार जाल हैं
पथरीली बंजर ज़मीन है
बेधारे सारे कुदाल हैं
ऊँघे हैं गणितज्ञ नींद में
अनसुलझे सारे सवाल हैं
जिसकी हाँ में हाँ न मिलाओ
उसके ही अब नेत्र लाल हैं
होगी प्रगति पुस्तकालय की
मूषक जी अब ग्रंथपाल हैं
मंज़िल तक वो क्या पहुँचेंगे
जो दो पग चल कर निढाल हैं
जस की तस है जंग 'अकेला'
हाथों-हाथों रेतमाल हैं
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