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|रचनाकार=मयंक अवस्थी
|संग्रह=
}}
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<poem>
आज तनक़ीद की लहरों में असीरों की तरह
फ़िक़्र अपनी है समन्दर में जज़ीरों की तरह
रहमते –अब्र का तालिब है फक़ीरों की तरह
एक दरिया जो बज़ाहिर है अमीरों की तरह
दूर के ढोल समाअत न बदर कर दें कहीं
उनके आदाब में बजिये न मज़ीरों की तरह
गैर-मुम्किन कोई तहरीर दिले-दरिया पर
रोज़ लिखती है हवा जा के हक़ीरों की तरह
उँगलियाँ वो मेरे अपनो की हैं गैरो की नहीं
उठ के लगती हैं कलेजे पे जो तीरों की तरह
अब तो उस्ताद भी शागिर्द हुये जाते हैं
ढाई आखर जो पढा हमने कबीरों की तरह
हम मिटाते हैं मगर दिल पे बनी रहती हैं
कुछ खराशें जो हैं पत्थर की लक़ीरों की तरह
</poem>
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|संग्रह=
}}
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आज तनक़ीद की लहरों में असीरों की तरह
फ़िक़्र अपनी है समन्दर में जज़ीरों की तरह
रहमते –अब्र का तालिब है फक़ीरों की तरह
एक दरिया जो बज़ाहिर है अमीरों की तरह
दूर के ढोल समाअत न बदर कर दें कहीं
उनके आदाब में बजिये न मज़ीरों की तरह
गैर-मुम्किन कोई तहरीर दिले-दरिया पर
रोज़ लिखती है हवा जा के हक़ीरों की तरह
उँगलियाँ वो मेरे अपनो की हैं गैरो की नहीं
उठ के लगती हैं कलेजे पे जो तीरों की तरह
अब तो उस्ताद भी शागिर्द हुये जाते हैं
ढाई आखर जो पढा हमने कबीरों की तरह
हम मिटाते हैं मगर दिल पे बनी रहती हैं
कुछ खराशें जो हैं पत्थर की लक़ीरों की तरह
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