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साँचा:KKPoemOfTheWeek

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चीरहरण करती है दिल्लीख़ानाबदोश औरत
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रचनाकार: [[जयकृष्ण राय तुषारकिरण अग्रवाल]]
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यमुना में ख़ानाबदोश औरतगर चुल्लू भर अपनी काली, गहरी पलकों सेपानी हो दिल्ली डूब मरो ।स्याह ... चाँदनी चौक हो गया नादिरशाहो तनिक डरो ।ताकती है क्षितिज के उस पार
नहीं राजधानी के सपना जिसकी आँखों में डूबकरलायक चीरहरण करती ख़ानाबदोश हो जाता है दिल्ली,भारत माँ उसकी ही तरहकी छवि दुनिया में समयशर्मसार करती जो लम्बे-लम्बे डग भरतानापता है दिल्ली,संविधान की क़समें खाने वालो, कुछ तो अब सुधरो ।ब्रह्मांड को
तालिबान में,समयतुझमें क्या है फ़र्क सोचकर हमें बताओ,जो भी गुनहगार हैं उनको फाँसी जिसकी नाक के तख़्ते तक लाओ,नथुनों सेदुनिया को निकलता रहता है धुआँक्या मुँह जिसके पाँवों की थाप सेदिखलाओगे नामर्दो शर्म करो ।थर्राती है धरती
क्राँति करो दिन अब अत्याचारी जिसके लौंग-कोट के बटन में उलझकरमहलों भूल जाता है अक्सर रास्ताऔरत उसके दिल की दीवार ढहा दो,धडकन हैकठपुतली परधान देश का उसको मौला राह दिखा दो,भ्रष्टाचारी हाक़िम दिन भर रूक जाएगाल बजाते उन्हें धरो ।तो रूक जाएगा समय
गोरख पांडेय का और इसलिए टिककर नहीं ठहरती कहींअनुयायी चुप क्यों चलती रहती है मजनू का टीला,आसमान की झुकी निगाहें हुआ शर्म से चेहरा पीला,इस समाज निरन्तर ख़ानाबदोश औरतका चेहरा बदलो अपने काफ़िले के साथनुक्कड़ नाटक बन्द करो ।पडाव-दर-पडाव
गद्दी का बेटी — पत्नी — माँ.... गुनाह वह खोदती है इतना कोयलाउस पर बैठी बूढी अम्मा,वह चीरती है लकडीदु:शासन हो वह काटती है पहाडगया प्रशासन वह थापती है गोयठापुलिसवह बनाती है रोटीवह बनाती है घरलेकिन उसका कोई घर नहीं होता ख़ानाबदोश औरतआसमान की ओर देखती है तो कल्पना चावला बनती हैधरती की ओर ताके तो मदर टेरेसाहुँकार भरती है तो होती है वह झाँसी की रानीपैरों को झनकाए तो ईजाडोरा ख़ानाबदोश औरतविज्ञान को खगालती है तोजनमती है मैडम क्यूरीक़लम हाथ में लेती है तो महाश्वेताप्रेम में होती है वह क्लियोपैट्रा और उर्वशीभक्ति में अनुसुइय्या और मीरां वह जन्म देती है पुरूष कोपुरूष जो उसका भाग्य-तन्त्र हो गया निकम्मा ,विधाता बन बैठता हैकुर्सी पुरूष जो उसको अपने इशारे पर हाँकता हैफिर भी बिना हिम्मत हारे बढ़ती रहती है आगेख़ानाबदोश औरत क्योंकि वह समय के दिल की धडकन हैबची रहेगी केवल अगर वह रूक जाएइटली का गुणगान करो ।तो रूक जाएगी सृष्टि
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