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|रचनाकार=वीरेन्द्र खरे 'अकेला'
|अंगारों पर शबनम / वीरेन्द्र खरे 'अकेला'
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<poem>
क्या पता था यह सियासी खेल खेला जाएगा
जीत कर विश्वास गड्ढे में ढकेला जाएगा

सुन रहे हैं मीठेपन का गुर सिखाने के लिए
बाग़ में सीताफलों के इक करेला जाएगा

काम क्या तुझसे पड़ा तू तो गवर्नर हो गया
माफ़ कर दे अब तेरा नखरा न झेला जाएगा

हसरतें अपनी दबा रक्खें कहाँ तक हम ग़रीब
यार कब बस्ती से अपनी उठ के मेला जाएगा

आग को बदनाम करने के तहत उस पर अभी
तेल मिट्टी का बता कर जल उड़ेला जाएगा

माँ ने बापू से कहा-‘होगी कहीं कवि-गोष्ठी
बस वहीं होगा कहाँ अपना ‘अकेला’ जाएगा
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