|सारणी=दोहावली / कबीर
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<poem>
तब लग तारा जगमगे, जब लग उगे न सूर ।
तब लग जीव जग कर्मवश, ज्यों लग ज्ञान न पूर ॥ 101 ॥
तब लग तारा जगमगेआस पराई राख्त, जब लग उगे न सूर खाया घर का खेत । <BR/>तब लग जीव जग कर्मवशऔरन को प्त बोधता, ज्यों लग ज्ञान न पूर मुख में पड़ रेत ॥ 101 102 ॥ <BR/><BR/>
आस पराई राख्तसोना, खाया घर का खेत सज्जन, साधु जन, टूट जुड़ै सौ बार । <BR/>औरन को प्त बोधतादुर्जन कुम्भ कुम्हार के, मुख में पड़ रेत ऐके धका दरार ॥ 102 103 ॥ <BR/><BR/>
सोनासब धरती कारज करूँ, सज्जन, साधु जन, टूट जुड़ै सौ बार लेखनी सब बनराय । <BR/>दुर्जन कुम्भ कुम्हार के, ऐके धका दरार सात समुद्र की मसि करूँ गुरुगुन लिखा न जाय ॥ 103 104 ॥ <BR/><BR/>
सब धरती कारज करूँबलिहारी वा दूध की, लेखनी सब बनराय जामे निकसे घीव । <BR/>सात समुद्र घी साखी कबीर की मसि करूँ गुरुगुन लिखा न जाय , चार वेद का जीव ॥ 104 105 ॥ <BR/><BR/>
बलिहारी वा दूध कीआग जो लागी समुद्र में, जामे निकसे घीव धुआँ न प्रकट होय । <BR/>घी साखी कबीर कीसो जाने जो जरमुआ, चार वेद का जीव जाकी लाई होय ॥ 105 106 ॥ <BR/><BR/>
आग जो लागी समुद्र मेंसाधु गाँठि न बाँधई, धुआँ न प्रकट होय उदर समाता लेय । <BR/>सो जाने जो जरमुआ, जाकी लाई होय आगे-पीछे हरि खड़े जब भोगे तब देय ॥ 106 107 ॥ <BR/><BR/>
साधु गाँठि न बाँधईघट का परदा खोलकर, उदर समाता लेय सन्मुख दे दीदार । <BR/>आगे-पीछे हरि खड़े जब भोगे तब देय बाल सने ही सांइया, आवा अन्त का यार ॥ 107 108 ॥ <BR/><BR/>
घट का परदा खोलकरकबिरा खालिक जागिया, सन्मुख दे दीदार और ना जागे कोय । <BR/>बाल सने ही सांइयाजाके विषय विष भरा, आवा अन्त का यार दास बन्दगी होय ॥ 108 109 ॥ <BR/><BR/>
कबिरा खालिक जागियाऊँचे कुल में जामिया, और ना जागे कोय करनी ऊँच न होय । <BR/>जाके विषय विष भरासौरन कलश सुरा, दास बन्दगी होय भरी, साधु निन्दा सोय ॥ 109 110 ॥ <BR/><BR/>
ऊँचे कुल में जामिया, करनी ऊँच न होय सुमरण की सुब्यों करो ज्यों गागर पनिहार । <BR/>सौरन कलश सुरा, भरीहोले-होले सुरत में, साधु निन्दा सोय कहैं कबीर विचार ॥ 110 111 ॥ <BR/><BR/>
सुमरण की सुब्यों करो ज्यों गागर पनिहार सब आए इस एक में, डाल-पात फल-फूल । <BR/>होले-होले सुरत मेंकबिरा पीछा क्या रहा, कहैं कबीर विचार गह पकड़ी जब मूल ॥ 111 112 ॥ <BR/><BR/>
सब आए इस एक मेंजो जन भीगे रामरस, डाल-पात फल-फूल विगत कबहूँ ना रूख । <BR/>कबिरा पीछा क्या रहाअनुभव भाव न दरसते, गह पकड़ी जब मूल ना दु:ख ना सुख ॥ 112 113 ॥ <BR/><BR/>
जो जन भीगे रामरससिंह अकेला बन रहे, विगत कबहूँ ना रूख पलक-पलक कर दौर । <BR/>अनुभव भाव न दरसतेजैसा बन है आपना, ना दु:ख ना सुख तैसा बन है और ॥ 113 114 ॥ <BR/><BR/>
सिंह अकेला बन रहेयह माया है चूहड़ी, पलक-पलक कर दौर और चूहड़ा कीजो । <BR/>जैसा बन है आपनाबाप-पूत उरभाय के, तैसा बन है और संग ना काहो केहो ॥ 114 115 ॥ <BR/><BR/>
यह माया जहर की जर्मी में है चूहड़ीरोपा, और चूहड़ा कीजो अभी खींचे सौ बार । <BR/> बाप-पूत उरभाय केकबिरा खलक न तजे, संग ना काहो केहो जामे कौन विचार ॥ 115 116 ॥ <BR/><BR/>
जहर की जर्मी में है रोपाजग मे बैरी कोई नहीं, अभी खींचे सौ बार जो मन शीतल होय । <BR/> कबिरा खलक न तजेयह आपा तो डाल दे, जामे कौन विचार दया करे सब कोय ॥ 116 117 ॥ <BR/><BR/>
जग मे बैरी कोई नहीं, जो मन शीतल होय जाने जीव न आपना, करहीं जीव का सार । <BR/>यह आपा तो डाल देजीवा ऐसा पाहौना, दया करे सब कोय मिले ना दूजी बार ॥ 117 118 ॥ <BR/><BR/>
जो जाने जीव न आपनाकबीर जात पुकारया, करहीं जीव का सार चढ़ चन्दन की डार । <BR/>जीवा ऐसा पाहौना, मिले बाट लगाए ना दूजी बार लगे फिर क्या लेत हमार ॥ 118 119 ॥ <BR/><BR/>
कबीर जात पुकारयालोग भरोसे कौन के, चढ़ चन्दन की डार बैठे रहें उरगाय । <BR/>बाट लगाए ना लगे फिर क्या लेत हमार जीय रही लूटत जम फिरे, मैँढ़ा लुटे कसाय ॥ 119 120 ॥ <BR/><BR/>
लोग भरोसे कौन केएक कहूँ तो है नहीं, बैठे रहें उरगाय दूजा कहूँ तो गार । <BR/>जीय रही लूटत जम फिरेहै जैसा तैसा हो रहे, मैँढ़ा लुटे कसाय रहें कबीर विचार ॥ 120 121 ॥ <BR/><BR/>
एक कहूँ तो है नहींजो तु चाहे मुक्त को, दूजा कहूँ तो गार छोड़े दे सब आस । <BR/>है मुक्त ही जैसा तैसा हो रहे, रहें कबीर विचार बस कुछ तेरे पास ॥ 121 122 ॥ <BR/><BR/>
जो तु चाहे मुक्त कोसाँई आगे साँच है, छोड़े दे सब आस साँई साँच सुहाय । <BR/>मुक्त ही जैसा हो रहेचाहे बोले केस रख, बस कुछ तेरे पास चाहे घौंट भुण्डाय ॥ 122 123 ॥ <BR/><BR/>
साँई आगे साँच हैअपने-अपने साख की, साँई साँच सुहाय सबही लीनी मान । <BR/>चाहे बोले केस रखहरि की बातें दुरन्तरा, चाहे घौंट भुण्डाय पूरी ना कहूँ जान ॥ 123 124 ॥ <BR/><BR/>
अपने-अपने साख कीखेत ना छोड़े सूरमा, सबही लीनी मान जूझे दो दल मोह । <BR/>हरि आशा जीवन मरण की बातें दुरन्तरा, पूरी ना कहूँ जान मन में राखें नोह ॥ 124 125 ॥ <BR/><BR/>
खेत ना छोड़े सूरमालीक पुरानी को तजें, जूझे दो दल मोह कायर कुटिल कपूत । <BR/>आशा जीवन मरण कीलीख पुरानी पर रहें, मन में राखें नोह शातिर सिंह सपूत ॥ 125 126 ॥ <BR/><BR/>
लीक पुरानी को तजेंसन्त पुरुष की आरसी, कायर कुटिल कपूत सन्तों की ही देह । <BR/>लीख पुरानी पर रहेंलखा जो चहे अलख को, शातिर सिंह सपूत उन्हीं में लख लेह ॥ 126 127 ॥ <BR/><BR/>
सन्त पुरुष की आरसीभूखा-भूखा क्या करे, सन्तों की ही देह क्या सुनावे लोग । <BR/>लखा जो चहे अलख कोभांडा घड़ निज मुख दिया, उन्हीं में लख लेह सोई पूर्ण जोग ॥ 127 128 ॥ <BR/><BR/>
भूखा-भूखा क्या करेगर्भ योगेश्वर गुरु बिना, क्या सुनावे लोग लागा हर का सेव । <BR/>भांडा घड़ निज मुख दियाकहे कबीर बैकुण्ठ से, सोई पूर्ण जोग फेर दिया शुक्देव ॥ 128 129 ॥ <BR/><BR/>
गर्भ योगेश्वर गुरु बिनाप्रेमभाव एक चाहिए, लागा हर का सेव भेष अनेक बनाय । <BR/>कहे कबीर बैकुण्ठ सेचाहे घर में वास कर, फेर दिया शुक्देव चाहे बन को जाय ॥ 129 130 ॥ <BR/><BR/>
प्रेमभाव एक चाहिएकांचे भाडें से रहे, भेष अनेक बनाय ज्यों कुम्हार का देह । <BR/>चाहे घर में वास करभीतर से रक्षा करे, चाहे बन को जाय बाहर चोई देह ॥ 130 131 ॥ <BR/><BR/>
कांचे भाडें से रहे, ज्यों कुम्हार का देह । <BR/>भीतर से रक्षा करे, बाहर चोई देह ॥ 131 ॥ <BR/><BR/> साँई ते सब होते है, बन्दे से कुछ नाहिं । <BR/>
राई से पर्वत करे, पर्वत राई माहिं ॥ 132 ॥
केतन दिन ऐसे गए, अन रुचे का नेह । <BR/>अवसर बोवे उपजे नहीं, जो नहीं बरसे मेह ॥ 133 ॥ <BR/><BR/>
एक ते अनन्त अन्त एक हो जाय । <BR/>एक से परचे भया, एक मोह समाय ॥ 134 ॥ <BR/><BR/>
साधु सती और सूरमा, इनकी बात अगाध । <BR/>आशा छोड़े देह की, तन की अनथक साध ॥ 135 ॥ <BR/><BR/>
हरि संगत शीतल भया, मिटी मोह की ताप । <BR/>निशिवासर सुख निधि, लहा अन्न प्रगटा आप ॥ 136 ॥ <BR/><BR/>
आशा का ईंधन करो, मनशा करो बभूत । <BR/>जोगी फेरी यों फिरो, तब वन आवे सूत ॥ 137 ॥ <BR/><BR/>
आग जो लगी समुद्र में, धुआँ ना प्रकट होय । <BR/> सो जाने जो जरमुआ, जाकी लाई होय ॥ 138 ॥ <BR/><BR/>
अटकी भाल शरीर में, तीर रहा है टूट । <BR/>चुम्बक बिना निकले नहीं, कोटि पठन को फूट ॥ 139 ॥ <BR/><BR/>
अपने-अपने साख की, सब ही लीनी भान । <BR/>हरि की बात दुरन्तरा, पूरी ना कहूँ जान ॥ 140 ॥ <BR/><BR/>
आस पराई राखता, खाया घर का खेत । <BR/>और्न को पथ बोधता, मुख में डारे रेत ॥ 141 ॥ <BR/><BR/>
आवत गारी एक है, उलटन होय अनेक । <BR/>कह कबीर नहिं उलटिये, वही एक की एक ॥ 142 ॥ <BR/><BR/>
आहार करे मनभावता, इंद्री की स्वाद । <BR/>नाक तलक पूरन भरे, तो कहिए कौन प्रसाद ॥ 143 ॥ <BR/><BR/>
आए हैं सो जाएँगे, राजा रंक फकीर । <BR/>एक सिंहासन चढ़ि चले, एक बाँधि जंजीर ॥ 144 ॥ <BR/><BR/>
आया था किस काम को, तू सोया चादर तान । <BR/>सूरत सँभाल ए काफिला, अपना आप पह्चान ॥ 145 ॥ <BR/><BR/>
उज्जवल पहरे कापड़ा, पान-सुपरी खाय । <BR/>एक हरि के नाम बिन, बाँधा यमपुर जाय ॥ 146 ॥ <BR/><BR/>
उतते कोई न आवई, पासू पूछूँ धाय । <BR/>इतने ही सब जात है, भार लदाय लदाय ॥ 147 ॥ <BR/><BR/>
अवगुन कहूँ शराब का, आपा अहमक होय । <BR/>मानुष से पशुआ भया, दाम गाँठ से खोय ॥ 148 ॥ <BR/><BR/>
एक कहूँ तो है नहीं, दूजा कहूँ तो गार । <BR/>
है जैसा तैसा रहे, रहे कबीर विचार ॥ 149 ॥
ऐसी वाणी बोलिए, मन का आपा खोए । <BR/>औरन को शीतल करे, आपौ शीतल होय ॥ 150 ॥ <BR/><BR/> कबीरा संग्ङति साधु की, जौ की भूसी खाय । खीर खाँड़ भोजन मिले, ताकर संग न जाय ॥ 151 ॥
कबीरा संग्ङति साधु कीएक ते जान अनन्त, जौ की भूसी खाय अन्य एक हो आय । <BR/>खीर खाँड़ भोजन मिलेएक से परचे भया, ताकर संग न जाय एक बाहे समाय ॥ 151 152 ॥ <BR/><BR/>
एक ते जान अनन्तकबीरा गरब न कीजिए, अन्य एक हो आय कबहूँ न हँसिये कोय । <BR/>एक से परचे भयाअजहूँ नाव समुद्र में, एक बाहे समाय ना जाने का होय ॥ 152 153 ॥ <BR/><BR/>
कबीरा गरब न कीजिएकलह अरु कल्पना, कबहूँ न हँसिये कोय सतसंगति से जाय । <BR/>अजहूँ नाव समुद्र मेंदुख बासे भागा फिरै, ना जाने का होय सुख में रहै समाय ॥ 153 154 ॥ <BR/><BR/>
कबीरा कलह अरु कल्पनासंगति साधु की, सतसंगति से जित प्रीत कीजै जाय । <BR/>दुख बासे भागा फिरैदुर्गति दूर वहावति, सुख में रहै समाय देवी सुमति बनाय ॥ 154 155 ॥ <BR/><BR/>
कबीरा संगति संगत साधु की, जित प्रीत कीजै जाय निष्फल कभी न होय । <BR/>दुर्गति दूर वहावतिहोमी चन्दन बासना, देवी सुमति बनाय नीम न कहसी कोय ॥ 155 156 ॥ <BR/><BR/>
कबीरा संगत साधु कीको छूटौ इहिं जाल परि, निष्फल कभी न होय कत फुरंग अकुलाय । <BR/>होमी चन्दन बासनाज्यों-ज्यों सुरझि भजौ चहै, नीम न कहसी कोय त्यों-त्यों उरझत जाय ॥ 156 157 ॥ <BR/><BR/>
को छूटौ इहिं जाल परिकबीरा सोया क्या करे, कत फुरंग अकुलाय उठि न भजे भगवान । <BR/>ज्यों-ज्यों सुरझि भजौ चहैजम जब घर ले जाएँगे, त्यों-त्यों उरझत जाय पड़ा रहेगा म्यान ॥ 157 158 ॥ <BR/><BR/>
कबीरा सोया क्या करेकाह भरोसा देह का, उठि न भजे भगवान बिनस जात छिन मारहिं । <BR/>जम जब घर ले जाएँगेसाँस-साँस सुमिरन करो, पड़ा रहेगा म्यान और यतन कछु नाहिं ॥ 158 159 ॥ <BR/><BR/>
काह भरोसा देह काकाल करे से आज कर, बिनस जात छिन मारहिं सबहि सात तुव साथ । <BR/>साँस-साँस सुमिरन करो, और यतन कछु नाहिं काल काल तू क्या करे काल काल के हाथ ॥ 159 160 ॥ <BR/><BR/>
काया काढ़ा काल करे से आज करघुन, सबहि सात तुव साथ जतन-जतन सो खाय । <BR/>काल काल तू क्या करे काल काल के हाथ काया बह्रा ईश बस, मर्म न काहूँ पाय ॥ 160 161 ॥ <BR/><BR/>
काया काढ़ा काल घुनकहा कियो हम आय कर, जतन-जतन सो खाय कहा करेंगे पाय । <BR/>काया बह्रा ईश बस, मर्म इनके भये न काहूँ पाय उतके, चाले मूल गवाय ॥ 161 162 ॥ <BR/><BR/>
कहा कियो हम आय करकुटिल बचन सबसे बुरा, कहा करेंगे पाय जासे होत न हार । <BR/>इनके भये न उतकेसाधु वचन जल रूप है, चाले मूल गवाय बरसे अम्रत धार ॥ 162 163 ॥ <BR/><BR/>
कुटिल बचन सबसे बुराकहता तो बहूँना मिले, जासे होत गहना मिला न हार कोय । <BR/> साधु वचन जल रूप हैसो कहता वह जान दे, बरसे अम्रत धार जो नहीं गहना कोय ॥ 163 164 ॥ <BR/><BR/>
कहता तो बहूँना मिलेकबीरा मन पँछी भया, गहना मिला न कोय भये ते बाहर जाय । <BR/> सो कहता वह जान दे, जो नहीं गहना कोय जैसे संगति करै, सो तैसा फल पाय ॥ 164 165 ॥ <BR/><BR/>
कबीरा मन पँछी भयालोहा एक है, भये ते बाहर जाय गढ़ने में है फेर । <BR/>जो जैसे संगति करैताहि का बखतर बने, सो तैसा फल पाय ताहि की शमशेर ॥ 165 166 ॥ <BR/><BR/>
कबीरा लोहा एक हैकहे कबीर देय तू, गढ़ने में है फेर जब तक तेरी देह । <BR/>ताहि का बखतर बनेदेह खेह हो जाएगी, ताहि की शमशेर कौन कहेगा देह ॥ 166 167 ॥ <BR/><BR/>
कहे कबीर देय तूकरता था सो क्यों किया, जब तक तेरी देह अब कर क्यों पछिताय । <BR/>देह खेह हो जाएगीबोया पेड़ बबूल का, कौन कहेगा देह आम कहाँ से खाय ॥ 167 168 ॥ <BR/><BR/>
करता था सो क्यों कियाकस्तूरी कुन्डल बसे, अब कर क्यों पछिताय म्रग ढ़ूंढ़े बन माहिं । <BR/>बोया पेड़ बबूल काऐसे घट-घट राम है, आम कहाँ से खाय दुनिया देखे नाहिं ॥ 168 169 ॥ <BR/><BR/>
कस्तूरी कुन्डल बसेकबीरा सोता क्या करे, म्रग ढ़ूंढ़े बन माहिं जागो जपो मुरार । <BR/>ऐसे घट-घट राम एक दिना हैसोवना, दुनिया देखे नाहिं लांबे पाँव पसार ॥ 169 170 ॥ <BR/><BR/>
कबीरा सोता क्या करेकागा काको घन हरे, जागो जपो मुरार कोयल काको देय । <BR/>एक दिना है सोवनामीठे शब्द सुनाय के, लांबे पाँव पसार जग अपनो कर लेय ॥ 170 171 ॥ <BR/><BR/>
कागा काको घन हरेकबिरा सोई पीर है, कोयल काको देय जो जा नैं पर पीर । <BR/>मीठे शब्द सुनाय केजो पर पीर न जानइ, जग अपनो कर लेय सो काफिर के पीर ॥ 171 172 ॥ <BR/><BR/>
कबिरा सोई पीर है, जो जा नैं पर पीर । <BR/>जो पर पीर न जानइ, सो काफिर के पीर ॥ 172 ॥ <BR/><BR/>कबिरा मनहि गयन्द है, आकुंश दै-दै राखि । <BR/>विष की बेली परि रहै, अम्रत को फल चाखि ॥ 173 ॥ <BR/><BR/>
कबीर यह जग कुछ नहीं, खिन खारा मीठ । <BR/>काल्ह जो बैठा भण्डपै, आज भसाने दीठ ॥ 174 ॥ <BR/><BR/>
कबिरा आप ठगाइए, और न ठगिए कोय । <BR/>आप ठगे सुख होत है, और ठगे दुख होय ॥ 175 ॥ <BR/><BR/>
कथा कीर्तन कुल विशे, भव सागर की नाव । <BR/>कहत कबीरा या जगत, नाहीं और उपाय ॥ 176 ॥ <BR/><BR/>
कबिरा यह तन जात है, सके तो ठौर लगा । <BR/>कै सेवा कर साधु की, कै गोविंद गुनगा ॥ 177 ॥ <BR/><BR/>
कलि खोटा सजग आंधरा, शब्द न माने कोय । <BR/>चाहे कहूँ सत आइना, सो जग बैरी होय ॥ 178 ॥ <BR/><BR/>
केतन दिन ऐसे गए, अन रुचे का नेह । <BR/>अवसर बोवे उपजे नहीं, जो नहिं बरसे मेह ॥ 179 ॥ <BR/><BR/>
कबीर जात पुकारया, चढ़ चन्दन की डार । <BR/>वाट लगाए ना लगे फिर क्या लेत हमार ॥ 180 ॥ <BR/><BR/>
कबीरा खालिक जागिया, और ना जागे कोय । <BR/>जाके विषय विष भरा, दास बन्दगी होय ॥ 181 ॥ <BR/><BR/>
गाँठि न थामहिं बाँध ही, नहिं नारी सो नेह । <BR/>कह कबीर वा साधु की, हम चरनन की खेह ॥ 182 ॥ <BR/><BR/>
खेत न छोड़े सूरमा, जूझे को दल माँह । <BR/>आशा जीवन मरण की, मन में राखे नाँह ॥ 183 ॥ <BR/><BR/>
चन्दन जैसा साधु है, सर्पहि सम संसार । <BR/>वाके अग्ङ लपटा रहे, मन मे नाहिं विकार ॥ 184 ॥ <BR/><BR/>
घी के तो दर्शन भले, खाना भला न तेल । <BR/>दाना तो दुश्मन भला, मूरख का क्या मेल ॥ 185 ॥ <BR/><BR/>
गारी ही सो ऊपजे, कलह कष्ट और भींच । <BR/>हारि चले सो साधु हैं, लागि चले तो नीच ॥ 186 ॥ <BR/><BR/>
चलती चक्की देख के, दिया कबीरा रोय । <BR/>दुइ पट भीतर आइके, साबित बचा न कोय ॥ 187 ॥ <BR/><BR/>
जा पल दरसन साधु का, ता पल की बलिहारी । <BR/>राम नाम रसना बसे, लीजै जनम सुधारि ॥ 188 ॥ <BR/><BR/>
जब लग भक्ति से काम है, तब लग निष्फल सेव । <BR/>कह कबीर वह क्यों मिले, नि:कामा निज देव ॥ 189 ॥ <BR/><BR/>
जो तोकूं काँटा बुवै, ताहि बोय तू फूल । <BR/>तोकू फूल के फूल है, बाँकू है तिरशूल ॥ 190 ॥ <BR/><BR/>
जा घट प्रेम न संचरे, सो घट जान समान । <BR/>जैसे खाल लुहार की, साँस लेतु बिन प्रान ॥ 191 ॥ <BR/><BR/>
ज्यों नैनन में पूतली, त्यों मालिक घर माहिं । <BR/>मूर्ख लोग न जानिए, बहर ढ़ूंढ़त जांहि ॥ 192 ॥ <BR/><BR/>
जाके मुख माथा नहीं, नाहीं रूप कुरूप । <BR/>पुछुप बास तें पामरा, ऐसा तत्व अनूप ॥ 193 ॥ <BR/><BR/>
जहाँ आप तहाँ आपदा, जहाँ संशय तहाँ रोग । <BR/>कह कबीर यह क्यों मिटैं, चारों बाधक रोग ॥ 194 ॥ <BR/><BR/>
जाति न पूछो साधु की, पूछि लीजिए ज्ञान । <BR/>मोल करो तलवार का, पड़ा रहन दो म्यान ॥ 195 ॥ <BR/><BR/>
जल की जमी में है रोपा, अभी सींचें सौ बार । <BR/>कबिरा खलक न तजे, जामे कौन वोचार ॥ 196 ॥ <BR/><BR/>
जहाँ ग्राहक तँह मैं नहीं, जँह मैं गाहक नाय । <BR/>बिको न यक भरमत फिरे, पकड़ी शब्द की छाँय ॥ 197 ॥ <BR/><BR/>
झूठे सुख को सुख कहै, मानता है मन मोद । <BR/>जगत चबेना काल का, कुछ मुख में कुछ गोद ॥ 198 ॥ <BR/><BR/>
जो तु चाहे मुक्ति को, छोड़ दे सबकी आस । <BR/>मुक्त ही जैसा हो रहे, सब कुछ तेरे पास ॥ 199 ॥ <BR/><BR/>
जो जाने जीव आपना, करहीं जीव का सार । <BR/>जीवा ऐसा पाहौना, मिले न दीजी बार ॥ 200 ॥ <BR/><BR/>