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|रचनाकार= नामवर सिंह
}}
{{KKCatNavgeet}}मंह<poem>मँह-मंह मँह बेल कचेलियाँ, माधव मास 
सुरभि-सुरभि से सुलग रही हर साँस
 लुनित सिवान, संझातीसँझाती, कुसुम उजास 
ससि-पाण्डुर क्षिति में घुलता आकास
फ़ैलाए फैलाए कर ज्यों वह तरु निष्पात 
फैलाए बाहें ज्यों सरिता वात
 
फैल रहा यह मन जैसे अज्ञात
 फैल रहे प्रिय, दिशि-दिशि लघु-लघु हाथ!</poem>
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