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|रचनाकार=भवानीप्रसाद मिश्र
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मायके में बहिन आई,
बहिन आई बाप के घर,
हाय रे परिताप के घर !
आज का दिन दिन नहीं है,
का यहाँ तक भी पसारा,
उसे लिखना नहीं आता,
जो कि उसका पत्र पाता ।पाता।
और पानी गिर रहा है,
भुजा भाई प्यार बहिने,
खेलते या खड़े होंगे,
नज़र उनको पड़े होंगे ।होंगे।
पिताजी जिनको बुढ़ापा,
ख़ूब भीतर छटपटाएँ,
आज ऐसा कुछ हुआ होगा,
आज सबका मन चुआ होगा ।होगा।
अभी पानी थम गया है,
ढेर है उनका, न फाँकें,
जो कि किरनें किरणें झुकें-झाँकें,
लग रहे हैं वे मुझे यों,
माँ कि आँगन लीप दे ज्यों,
दे रहा है क्लेश मुझको,
देह एक पहाड़ जैसे,
मन की बड़ बाड़ का झाड़ जैसे,
एक पत्ता टूट जाए,
कूदता हूँ, खेलता हूँ,
दुख डट कर ठेलता झेलता हूँ,
और कहना मस्त हूँ मैं,
यों न कहना अस्त हूँ मैं,
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